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________________ शतक २३१ बन्धयोग्यं ज्ञातव्यम् । मिथ्यात्वव्युच्छिनाभिरूनारता एव नरकायु रकद्वयं २ च मुक्त्वा एतस्त्रयं परिहृत्य प्रयोदशप्रकृतिभिहीनाः अन्याः षण्णवतिः सासादने एक-विकलग्रयाणां बन्धः ६६ । तथा गोमट्टसारे एवं प्रोक्तमस्ति--मनुष्य-तिर्यगायुयं मिथ्यादृष्टौ ब्युच्छिन्नम् । सासादने एतवयं नास्ति । कुतः ? 'सासणो देहे पाति ण वि पावदि, इदि णर तिरियाउगं णधि इति एकेन्द्रिय-विकलत्रयाणां मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिः १५ पञ्चदश तत्पोडशके नरकद्विक-नरकायुषोरभावे नर-तिचंगायुषोः क्षेपात् पञ्चदश एक-विकलत्रयेषु पञ्चेन्द्रियेषु ओघवत् गुणस्थानवत् । बन्धयोग्यप्रकृतिकं १२० । गुणस्थानानि १४ ॥३५५३-३५७१॥ मि. सा० एकेन्द्रिय-विकलत्रययन्त्रम्- १०५ १४ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंमें प्रकृतियोंका बन्ध तिर्यञ्चपंचेन्द्रियभपर्याप्त जीवोंके बन्धके समान तीर्थङ्कर, आहारकद्विक, देवायु, नरकायु और क्रियिकषट्कके विना १०६. का होता है। उनके अपर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा दो गुणस्थान माने गये हैं, सो उक्त जीवोंके मिथ्यात्वगुणस्थानमें तो उतनी ही १०६ प्रकृतियोंका बन्ध जानना चाहिए। सासादनगुणस्थानवर्ती एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव नरकायु और नरकद्विकको छोड़कर मिथ्यात्वमें विच्छिन्न होनेवाली शेष १३ के विना ६६ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। पंचेन्द्रिय जीवोंमें प्रकृतियोंका बन्ध ओघके समान जानना चाहिए ॥३५५३-३५७३।। (देखो संदृष्टिसंख्या २३ ) _ विशेषार्थ-भाष्यगाथाकारने यहाँपर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंकी बन्ध-प्रकृतियाँ बतलाते हुए मिथ्यात्वगुणस्थानमें नरकायु और नरकद्विकके विना १३ प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति कर सासादनमें बन्ध-योग्य ६६ प्रकृतियाँ कहीं हैं। परन्तु गो० कर्मकाण्ड गाथाङ्क ११३ में मनुष्यायु और तिर्यगायुकी भी बन्ध-व्युच्छिति मिथ्यात्वमें बतला करके सासादनमें ६४ प्रकृतियोंका बन्ध बतलाया है और उसके लिए युक्ति यह दी है कि 'तत्थुप्पण्णो हु सासणो देहे पज्जत्तिं ण वि पावदि, इदि णर-तिरियाउगं णत्थि; अर्थात् यतः एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाला सासादनगुणस्थानवी जीव शरीरपर्याप्तिको पूरा नहीं कर पाता, क्योंकि सासादनका काल अल्प और निवृत्त्यपर्याप्तअवस्थाका काल अधिक है, अतः सासावनगुणस्थानमें मनुष्यायु और तिर्यगायुका बन्ध नहीं होता है। किन्तु मिथ्यात्वगुणस्थानमें ही उनका बन्ध होता है और उसीमें उनकी व्युच्छित्ति भी हो जाती है। तथा इसी गाथामें जो पंचेन्द्रियसामान्यकी बन्धविधिका ओघके समान निर्देश किया गया है, सो वह पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंका समझना चाहिए; क्योंकि निर्वृत्त्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियोंके केवल पाँच गुणस्थान ही होते हैं, सभी नहीं। (देखो संदृष्टि सं० २४) अब कायमार्गणाकी अपेक्षा प्रकृतियोंके बन्धादिका वर्णन करते हैं भूदयववणप्फदीसुमिच्छा सासण इगिंदिभंगमिव ॥३५८॥ णरदुय-णराउ-उच्चूण तेउ-बाउइगिंदियपयडीओ। ।१०५ पृथ्वीकायाप्कायतनस्पतिकायेषु मिथ्यात्व-सासादनोक्तकेन्द्रियभङ्गरचनावत्। मनुष्यगति-मनुप्यगत्यानुपूर्व्यद्वय-मनुष्यायुरुच्चैर्गोत्रोना एकेन्द्रियोक्तप्रकृतयः ५०५। तेजस्काये वायुकाये च मिथ्यादृष्टौ १०५ बन्धयोग्याः ॥३५८॥ १. गो० कर्म० गा० ११३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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