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________________ शतक २७६ हारकशरीराङ्गोपाङ्गत्रिकं ३ षट संहननानि ६ पञ्च वर्णाः ५ द्वौ गन्धौ २ पञ्च रसाः ५ स्पर्शाष्टकं ८ चेति पञ्चाशत् ५० । अगुरुलघुः १ उपघातः परघातः १ आतपः १ उद्योतः १ निर्माणं. प्रत्येक-साधारणद्वयं २ स्थिरास्थिरद्वयं २ शुभाशुभद्वयं २ चेति द्वाषष्टिः प्रकृतयः ६२ पुद्गलविपाकी नि भवन्ति, पुद्गले शरीरे एतासां विपाकत्वात् । पुद्गले विपाकमुदयं ददतीति शरीरेण सहोदयं यान्ति पुद्गलविपाकिन्यः । नारकादिसम्बन्धीनि चत्वार्याऽऽयूंषि भवविपाकीनि नारकादिजीवपर्यायवर्तनहेतुत्वात् ४ । चत्वार्यानुपूणि क्षेत्रविपाकानि ४ क्षेत्रे विग्रहगतौ उदयं यान्ति ४ । अवशिष्टाः अष्टसतिः ७८ प्रकृतयः जीवविपाकिन्यः जीवेन सहोदयं यान्ति । एवं प्रकृतिकार्यविशेषाः ज्ञातव्याः ॥४६०-४६२॥ शरीर नामकर्मसे आदि लेकर स्पर्श नामकर्म तककी प्रकृतियाँ आनुपूर्वीसे शरीर ५, बन्धन ५ और संघात ५ इस प्रकार १५; संस्थान ६, अङ्गोपाङ्ग ३, संहनन ६, वर्ण ५, बन्ध २, रस ५ और स्पर्श ८; तथा अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, निर्माण, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ; ये सर्व ६१ प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं । आयुकर्मकी चारों प्रकृतियाँ भवविपाकी हैं। चारों आनुपूर्वीप्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी हैं। शेष ७८ प्रकृतियाँ जीवविपाकी जानना चाहिए ॥४६०-४६२।।। विशेषार्थ-जिन प्रकृतियोंका फलस्वरूप विपाक पुद्गलरूप शरीरमें होता है, उन्हें पुदगलविपाकी कहते हैं। जिन प्रकृतियोंका विपाक जीवमें होता है, उन्हें जीवविपाकी कहते हैं। जिन प्रकृतियोंका विपाक नरक, तिथंच आदिके भवमें होता है, ऐसी नरकायु आदि चारों आयुकर्मको प्रकृतियोंको भवविपाकी कहते हैं और जिन प्रकृतियोंका विपाक विग्रहगतिरूप क्षेत्रमें होता है, ऐसी चारों आनुपूर्वियोंको क्षेत्रविपाकी कहते हैं। अब भाष्यगाथाकार उक्त जीवविपाकी प्रकृतियों को गिनाते हैं वेयणीय-गोय-धाई णभगइ गइ जाइ आण तित्थयरं । तस-जस-बायर-पुण्णा सुस्सर-आदेज-सुभगजुयलाई ।।४६३॥ २।२। एस्थ घाइपयदीभो ४७।२।४।५।१।१२।२।२।२।२।२।२। एवं सव्वाओ मेलियाओ जीवविवागा वुच्चंति ७८ । सव्वाओ मेलियाभो :४८ । एवं अणुभागबंधो समत्तो। ताः जीवविपाकिन्यः का इति चेदाह-['वेयणीय-गोय-घाई' इत्यादि ।] सातासातावेदनीयद्वयं २ गोत्रद्वयं २ घातिसप्तचत्वारिंशत् ४७ । ताः काः ? ज्ञानावरणपञ्चकं ५ दर्शनावरणनवकं १ मोहनीयमष्टा. विंशतिक २८ अन्तरायपञ्चकं ५ चेति घातिप्रकृतयः सप्तचत्वारिंशत् ४७ । प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्वयं २ नारकादिगतयश्चतस्रः ४ एक-द्वि-त्रि-चतुः-पन्चेन्द्रियजातयः पश्च ५ आनप्राणः श्वासोच्छ्रासः १ तीर्थकरत्वं १ प्रसस्थावरद्वयं २ यशोऽयशोद्वयं २ बादर-सूचमयुग्मं २ पर्याप्तापर्याप्तद्वयं २ सुस्वर-दुःस्वरौ २ मादेयानादेयद्वयं २ सुभग दुर्भग-युगलम् २ । एवं सर्वा मीलिताः जीवविपाकिन्यः ७८ उच्यन्ते ।।४६३।। एवमनुभागबन्धः समाप्तः ! इति चतुर्दशभेदानुभागबन्धः समाप्तः । वेदनीयकी २, गोत्रकी २, घातिकर्मोकी ४७, विहायोगति २, गति ४, जाति ५, श्वासो थिकर १, तथा त्रस, यशःकात्ति, बादर, पयाप्त, सुस्वर, आदय और सुभग, इन सात युगलोंकी १४ प्रकृतियाँ; इस प्रकार सर्व मिलाकर ७८ प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं ॥४६३॥ पुद्गलविपाकी ६२, जीवविपाकी ७८, भवविपाकी ४ ; और क्षेत्रविपाकी ४ सब मिलाकर १४८ प्रकृतियाँ हो जाती हैं। इस प्रकार अनुभागबन्ध समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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