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________________ शतक ज्ञानमार्गणाको अपेक्षा तीनों अज्ञानोंमें तीनों अज्ञान और चक्षुदर्शन वा अचक्षुदर्शन ये पाँच-पाँच उपयोग होते हैं। प्रथमके चारों सद्ज्ञानोंमें तीन अज्ञान और केवलद्विकके विना शेष सात-सात उपयोग होते हैं। केवलज्ञानमें केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग जानना चाहिए । संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक, छेदोपस्थापना और सूक्ष्मसाम्परायसंयममें अज्ञानत्रिक और केवलद्विकके विना शेष सात-सात उपयोग होते हैं। परिहारसंयम तथा देशसंयममें आदिके तीन दर्शन और तीन सद्ज्ञान इस प्रकार छह-छह उपयोग होते हैं। यथाख्यातसंयममें पाँचों सद्ज्ञान और चारों दर्शन इस प्रकार नौ उपयोग होते हैं। असंयममें मनःपर्ययज्ञान और केवलद्विकके विना शेष नौ उपयोग होते हैं। दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा आदिके दो दर्शनोंमें केवलद्विकके विना शेष दश-दश उपयोग होते हैं। अवधिदर्शनमें केवलद्विक और अज्ञानत्रिकके विना शेष सात उपयोग होते हैं। केवलदर्शनमें नियमसे केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं ॥३१-३५।। किण्हाइतिए णेया मण-केवलजुगलएहि ऊणा ते । तेऊ पम्मे भविए केवलदुयवजिया दु ते चेव ॥३६॥ सुक्काए सव्वे वि य मिच्छा सासण अभविय जीवेसु । अण्णाणतियमचक्खू चक्खूणि हवंति णायव्वा ॥३७॥ दसण-णाणाइतियं उवसमसम्मम्मि होइ बोहव्वं । मिस्से ते चिय- मिस्सा अण्णाणतिगूणया खइए ॥३८॥ वेदयसम्मे केवलदुअ-अण्णाणतियऊणिया सव्वे । केवलदुएण रहिया ते चेव हवंति सण्णिम्मि ॥३६॥ मइ-सुअअण्णाणाई अचक्खु-चक्खणि होति इयरम्मि । आहारे ते सव्वे विहंग-मण-चक्खु-ऊणिया इयरे ॥४०॥ ___ एवं मग्गणासु उवओगा समत्ता । कृष्णादित्रिके कृष्ण-नील-कापोतलेश्यासु तिसृषु प्रत्येकं मनःपर्यय-केवलदर्शन-ज्ञानयुगलैरूना ते उपयोगा नव । तेजोलेश्यायां पद्मलेश्यायां भव्ये च केवलद्विकवर्जिताः अन्ये ते उपयोगा दश १० । सयोगाऽयोगयोः भव्यव्यपदेशो नास्तीति केवलद्विकं न ॥३६॥ शुकुलेश्यायां सर्वे द्वादशोपयोगाः स्युः १२ । मिथ्यात्वरुचिजीवे सासादनसम्यक्त्वे जीवे अभव्यजीवे चाज्ञानत्रिकं चक्षुरचक्षुदर्शनद्विकं २ इति पञ्चोपयोगाः ५ ज्ञातव्या भवन्ति ॥३७॥ उपशमसम्यक्त्वे चक्षुरादिदर्शननयं ३ मत्यादिज्ञानत्रिकं २ चेति षडुपयोगा भवन्तीति बोधव्याः ६ । मिश्रे ते षड् मिश्रा मति-श्रुतावधिज्ञान-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनाख्याः मिश्ररूपाः शुभाऽशुभरूपाः षट् उपयोगाः ६ स्युः ॥३८॥ वेदकसम्यक्त्वे केवलज्ञान-दर्शनद्वयाऽज्ञानत्रिकोनाः अन्ये सर्वे सप्तोपयोगाः स्युः । संज्ञिजीवे केवलज्ञान-दर्शनद्वयेन रहितास्ते उपयोगाः दश १० भवन्ति । सयोगाऽयोगयोः नोइन्द्रियेन्द्रियज्ञानाभावात् संश्यऽसंझिव्यपदेशो नास्ति, अतः केवलद्विकं संज्ञिनि न ॥३६॥ x ब विय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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