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________________ २३४ पञ्चसंग्रह मुक्त्वा सासादनस्थव्युच्छिन्न २४ प्रकृतिभी रहितास्तीर्थरत्वयुक्ताश्च ता एवं प्रकृती:७१ वैक्रियिककाययोगिनोऽसंयता बन्नन्ति ॥३६२१-३६५३॥ मि. सा. असं. १०१ 2 / 04 वैक्रियिककाययोगमें देवसामान्यके समान बन्धरचना जानना चाहिए। उनमें १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें तिर्यगायु और मनुष्यायुके विना शेष १०२ देवगतिसम्बन्धी प्रकृतियाँ बंधती हैं। उनमेंसे तीर्थङ्करके विना शेष १०१ प्रकृतियाँ मिथ्यात्वगुणस्थानमें बँधती हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, हुंडकसंस्थान, सृपाटिकासंहनन, मिथ्यात्व और नपुंसकवेद इन सातके विना शेष ६४ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । उक्त योगवाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव तिर्यगायुको छोड़कर सासादनमें बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली २४ प्रकृतियोंके विना, तथा तीर्थङ्करसहित ७१ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३६२३-३६५३॥ (देखो संदृष्टि सं० २६) विशेषार्थ-आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंकी बन्ध-प्रकृतियाँ सुगम होनेसे भाष्यगाथाकारने नहीं बतलाई हैं सो उनकी बन्ध-प्रकृतियाँ प्रमत्तगुणस्थानके समान जानना चाहिए। आहारकमिश्रकाययोगियोंके इतना विशेष ज्ञातव्य है कि उनके बन्धयोग ६२ प्रकृतियाँ ही होती हैं, क्योंकि 'तम्मिस्से णत्थि देवाऊ' इस आगम-वचनके अनुसार अपर्याप्तदशामें देवायुका बन्ध नहीं होता है। णिरयदुगाहारजुयलचउरो आऊहिं बंधपयडीहिं ॥३६६॥ कम्मइयकायजोईरहिया बंधंति णियमेण । ।११२॥ सुरचदुतित्थयरूणा ताओ बधंति मिच्छदिट्ठी दु ॥३६७।। ।१०७॥ नरकगति-तदानुपूर्व्यद्वयं २ आहारक-तदङ्गोपाङ्गद्वयं २ नरकाद्यायुश्चतुष्कं ४ इत्यष्टाभिर्बन्धप्रकृतिभी रहिताः अन्याः द्वादशोत्तरशतप्रकृती: कार्मणकाययोगिनो बन्नन्ति ११२ । तद्योगिनां विग्रहगती तद्वन्धाभावानियमेन । तत्र देवगति-तदानुपूर्व्य-वैक्रियिक-तदङ्गोपाङ्ग-तीर्थकरत्वोनास्ता एव प्रकृतीः कार्मणकाययोगिनो मिथ्यादृष्टयो १०७ बध्नन्ति ॥३६५३-३६७॥ कार्मणकाययोगी जीव नरकद्विक, आहारकयुगल और चारों आयुकर्मों के विना शेष ११२ प्रकृतियोंको नियमसे बाँधते हैं। उनमें भी कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सुरचतुष्क और तीर्थङ्करके विना १०७ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥३६५३-३६७॥ एत्थ मिच्छादिहिवुच्छिण्णपयडीणं मझे णिरयाउग-णिरयदुगं तिणि पयडीओ मुत्तूण सेसाओ तेरस पयडीओ अवणिय सेसाओ चउणउदिपयडीओ सासणसम्मादिहिणो बंधंति ६४। अत्र मिथ्यादृष्टिव्युच्छिन्नप्रकृतीनां १६ मध्ये नारकायुष्यं नारकद्वयमिति तिनः प्रकृतीः मुक्त्वा शेषास्त्रयोदशप्रकृतीरपनीय शेषाश्चतुर्नवतिं प्रकृतीः सास्वादनस्थकार्मणकाययोगिनो बध्नन्ति १४ । • यहाँपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें विच्छिन्न होनेवालो १६ प्रकृतियोंमेंसे नरकायु और नरकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर शेष तेरह प्रकृतियोंको निकालकर बाकी बची चौरानवे प्रकृतियोंको कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि बाँधते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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