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________________ ३३२ पञ्चसंग्रह [मूलगा०१६] सेसेसु अबंधम्मि य संता अड-चउर-एगहियवीसा । ते पुण अहिया णेया कमसो चउ-तिय-दुगेगेण ॥५०॥ सेसे बंधतिए, अबंधे वि चत्तारि संतट्ठाणाणि । तत्थ तिबंधए २८।२४।२१।४। दुबंधए २८।२३।२।३। एयबंधे २८।२४।२१।२। अबंधे २८।२४।२१।१। शेषु त्रिद्वय कबन्धके अबन्धके च प्रत्येक अष्टाविंशतिकं २८ चतुर्विशतिकं २४ एकविंशतिकं च २१। तानि पुनः क्रमशश्चतुनिद्विकैकेनाधिकानि मोहसत्त्वस्थानानि । तथाहि अनिवृत्तिकरणे संज्वलनमानमायालोभत्रयबन्धके उपशमके २८२४॥२१ । अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य विसंयोजितदर्शनमोहसप्तकस्य क्षपणं च तत्र सम्भवात् । तत्रिबन्धानिवृत्तिक्षपके पुंवेदे क्षयं गते चतुःसंज्वलनसत्त्वस्थानम् ४ । तद्विकबन्धोपशमके २८२४।२१ । आपके क्रोधे क्षपिते संज्वलनत्रिकसत्त्वस्थानम् ३ । अनिवृत्तिकरणोपशमके एकबन्धके २८॥२४॥ २१ । क्षपके च मानक्षपिते संज्वलनमाया-लोभसत्त्वद्वयम् २। अबन्धके सूचमसाम्पराये उपशमश्रेण्यां २८॥२४॥२१ । क्षपकश्रेण्यां सुचमलोभसत्त्वं सूचमकृष्टिकरणरूपलोभसत्त्वमेकम् । इति विद्वय कबन्धके अबन्धके च चत्वारि सत्त्वस्थानानि ४।३।२।१ ॥५०॥ शेष तीन, दो और एक बन्धस्थानमें और अबन्धक स्थानमें क्रमशः चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक सत्त्वस्थानसे अधिक अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक ये चार-चार सत्त्वस्थान होते हैं ॥५०॥ शेष तीन बन्धस्थानोंमें और अबन्धकस्थानमें चार-चार सत्त्वस्थान होते हैं। उनमेंसे तीन प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८।२४।२१।४ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । द्विप्रकृतिक बन्धस्थानमें २८। २४।२१ । ३ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें २८।२४।२१।२ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं । तथा अबन्धकस्थानमें २८।२४।२१।१ ये चार सत्त्वस्थान होते हैं। विशेषार्थ-मोहनीयके किस-किस बन्धस्थानमें किस-किस उदयस्थानके साथ कौन-कौन से सत्त्वस्थान किस प्रकार सम्भव हैं, इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान मिथ्यादृष्टिके होता है । इसके सात, आठ, नौ और दश प्रकृतिक चार उदयस्थान और अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। इनमेंसे सातप्रकृतिक उदयस्थानके समय अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है। इसका कारण यह है कि सातप्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धोके उदयके विना ही प्राप्त होता है और मिथ्यात्वमें अनन्तानुबन्धीके उदयका अभाव उसी जीवके होता है जिसने पहले सम्यग्दृष्टिकी दशामें अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी विसंयोजना की है। पुनः सम्यक्त्वसे गिरकर और मिथ्यात्वमें जाकर जिसने मिथ्यात्वके निमित्तसे पुनः अनन्तानुबन्धि-चतुष्कका बन्ध प्रारम्भ किया। ऐसे जीवके एक आवलीकाल तक अनन्तानुबन्धी कषायका उदय नहीं होता है। किन्तु ऐसे जीवके अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व अवश्य पाया जाता है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि सात प्रकृतिक उदयस्थानमें अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है। आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें अट्टाईस, सत्ताईस और छब्बीस ये तीनों ही सत्त्वस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकारका होता है-एक तो अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित और दूसरा अनन्तानुबन्धीके उदयसे सहित । इनमेंसे अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्त्वस्थान होता है । तथा अनन्तानुबन्धीके उदयसे सहित आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें आदिके तीनों ही सत्त्वस्थान से स्थान सम्भव है। वह इस प्रकार कि जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वलना नहीं होती, तब तक अट्ठाईसप्रकृतिक सत्त्वस्थान होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना हो जाने पर १. श्वे. सप्ततिकायां गाथेयं नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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