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________________ जीवसमास इच्चेवमाइया जे वेदयमाणस्स होंति ते य गुणा । वेदयसम्मत्तमिणं सम्मत्तु दएण जीवस्स ॥१६४॥ वेदकसम्यक्त्वके उत्पन्न होने पर जीवकी बुद्धि शुभानुबन्धी या सुखानुबन्धी हो जाती है, शुचि कर्ममें रति उत्पन्न होती है, श्रुतमें संवेग अर्थात् प्रीति पैदा होती है, तत्त्वार्थमें श्रद्धान, प्रिय धर्ममें अनुराग, एवं संसारसे तीव्र निर्वेद अर्थात् वैराग्य जागृत हो जाता है। इन गुणोंको आदि लेकर इस प्रकारके जितने गुण हैं, वे सब वेदकसम्यक्त्वी जीवके प्रगट हो जाते हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयका वेदन करनेवाले जीवको वेदकसम्यक्त्वी जानना चाहिए ।।१६३-१६४॥ उपशमसम्यक्त्वका स्वरूप देवे अणण्णभावो विसयविरागो य तच्चसद्दहणं । दिट्ठीसु असम्मोहो सम्मत्तमणूणयं जाणे ॥१६॥ दसणमोहस्सुदए उवसंते सच्चभावसद्दहणं । उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णकलुसं जहा तोयं ॥१६६॥ उपशमसम्यक्त्वके होने पर जीवके सत्यार्थ देवमें अनन्य भक्तिभाव, विषयोंसे विराग, तत्त्वोंका श्रद्धान और विविध मिथ्या दृष्टियों (मतों) में असम्मोह प्रगट होता है, इसे क्षायिकसम्यक्त्वसे कुछ भी कम नहीं जानना चाहिए। जिस प्रकार पंकादि-जनित कालुष्यके प्रशान्त होने पर जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार दर्शनमोहके उदयके उपशान्त होनेपर जो सत्यार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपशमसम्यक्त्व कहते हैं ।।१६५-१६६॥ तीनों सम्यक्त्वोंका गुणस्थानों में विभाजन 'खाइयमसंजयाइसु वेदयसम्मत्तमप्पमत्तंते । उवसमसम्मत्त पुण *उवसंततेसुणायन्वं ॥१६७।। क्षायिकसम्यक्त्व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपरिम सर्व गुणस्थानों में होता है। वेदकसम्यक्त्व अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक होता है और उपशमसम्यक्त्व उपशान्तमोह गुणस्थानान्त जानना चाहिए ॥१६७॥ सासादनसम्यक्त्वका स्वरूप *ण य मिच्छत्त पत्तो सम्मत्तादो य जो हु परिवडिओ। सो सासणो त्ति णेओ सादियपरिणामिओ भावो ॥१६८॥ उपशमसम्यक्त्वसे परिपतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं हुआ है, तब तक उसे सासादनसम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । इसके सादि पारिणामिक भाव होता है ॥१६८॥ 1. सं० पञ्चसं० २६८ । १. १, ३०२ । १. गो० जी० ६५३, परं तन चतुर्थचरणे 'पंचमभावेण संजुतो' इति पाठः । द ते -मुणेयब्बं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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