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पञ्चसंग्रह
सम्यक्त्वमार्गणा, जीव सम्यक्त्वको कब प्राप्त करता है, इस बातका निरूपण -
भव्वो पंचिदिओ सण्णी जीवो पञ्जत्तओ तहा । काललाइ संजुत्तो सम्मत्तं पडिवजए || १५८ ॥
जो भव्य हो, पंचेन्द्रिय हो, संज्ञी हो, पर्याप्तक हो, तथा काललब्धि आदिसे संयुक्त हो, ऐसा जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । [ यहाँ पर आदि पदसे वेदनाभिभव, जातिस्मरण आदि बाह्य कारण विवक्षित हैं । संस्कृत पश्र्चसंग्रह ] ॥ १५८ ॥
सम्यक्त्वका स्वरूप
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'छष्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइद्वाणं ।
आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ' ॥१५६॥
जिनवरोंके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नौ प्रकारके पदार्थोंका आज्ञा या अधिगमसे श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥ १५६ ॥ क्षायिकसम्यक्त्वका स्वरूप
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खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ । तं खाइयसम्मत्तं णिचं कम्मक्खवणहेउं ॥ १६०॥ यहिं वि ऊहि य इंदियभयजणणगेहिं रूवेहिं । वीभच्छ- दुर्गुळेहि य णो तेल्लोकेण चालिजा ॥१६१ ॥ एवं विउला बुद्धी ण य विभयमेदि किंचि दट्ठूणं । पट्टविए सम्मत्ते खइए जीवस्स लद्धीए ॥ १६२॥
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दर्शनमोहनीय कर्मके सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । वह सम्यक्त्व नित्य है, अर्थात् होकर के फिर कभी छूटता नहीं है और सिद्धपद प्राप्त करने तक शेष कर्मोंके क्षपणका कारण है । यह क्षायिकसम्यक्त्व श्रद्धानको भ्रष्ट करनेवाले वचनोंसे, तर्कों से, इन्द्रियोंको भय उत्पन्न करनेवाले रूपों [आकारों] से तथा वीभत्स और जुगुप्सित पदार्थोंसे भी चलायमान नहीं होता। अधिक क्या कहा जाय, वह त्रैलोक्यके द्वारा भी चल-विचल नहीं होता । क्षायिकसम्यक्त्व के प्रस्थापन अर्थात् प्रारम्भ होने पर अथवा लब्धि अर्थात् प्राप्ति या निष्ठापन होने पर क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढ़ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ ( असंभव या अनहोनी घटनाएँ ) देखकर भी विस्मय या क्षोभको प्राप्त नहीं होता ।। १६० - १६२॥
वेदकसम्यक्त्वका स्वरूप-
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बुद्धी सुहाणुबंधी सुइकम्मरओ सुए य संवेगो । तच्चत्थे सद्दहणं पियधम्मे : तिव्वणिव्वेदो || १६३॥
1. सं० पञ्चसं० १, २८६ । 2. १,२६० । ३. १, २६३ ।
१. ६० भा० १ पृ० ३६५, गो० जी० ५६० । २. ६० भा० १ पृ० ३६५, गो० जी० ६४५ ।
३. ध० भा० १ पृ० ३१५, गो० जी० ६४६ ।
ॐ बवि + व विब्भय । 1 ब द धम्मो |
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