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________________ जीवसमास जो कृष्णादि छहों लेश्याओंसे रहित है, पंच परिवर्तनरूप संसारसे विनिर्गत हैं, अनन्तसुखी हैं, और आत्मोपलब्धिरूप सिद्धिपुरीको संप्राप्त हैं, ऐसे अयोगिकेवली और सिद्ध जीवोंको अलेश्य जानना चाहिए । ॥१५३।। इस प्रकार लेश्यामार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। भव्यमार्गणा, भव्यसिद्धका स्वरूप 'सिद्धत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते भवंति भवसिद्धा । ण उ मलविगमे णियमा ताणं कणकोपलाणमिव ॥१५४॥ जो जीव सिद्धत्व अर्थात् सर्व कर्मसे रहित मुक्तिरूप अवस्था पानेके योग्य हैं, वे भव्यसिद्ध कहलाते हैं। किन्तु उनके कनकोपल (स्वर्ण-पाषाण) के समान मलका नाश होने में । नहीं है ॥१५४।। बिशेषार्थ-भव्यसिद्ध जीव दो प्रकारके होते हैं-एक वे, जो कि सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर लेते हैं, और एक वे, जो कभी सिद्ध-अवस्था प्राप्त नहीं कर सकते । जो भव्य होते हुए भी सिद्धअवस्थाको प्राप्त नहीं कर सकते हैं, उनके लिए स्वर्ण-पाषाणका दृष्टान्त ग्रन्थकारने दिया है। जिसप्रकार किसी स्वर्ण-पाषाणमें सोना रहते हुए भी उसको पृथक् किया जाना संभव नहीं है, उसी प्रकार सिद्धत्वकी योग्यता होते हुए कितने ही जीव तदनुकूल सामग्रीके नहीं मिलनेसे सिद्ध अवस्था नहीं प्राप्त कर पाते। . भव्य और अभव्य जीवोंका निरूपण संखेज असंखेजा अणंतकालेण चावि ते णियमा । सिझति भव्वजीवा अभव्वजीवा ण सिझति ॥१५॥ भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते भवंति भवसिद्धा। तविवरीयाऽभव्वा संसाराओ ण सिझंति ॥१५६॥ जो भव्य जीव हैं, वे नियमसे संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्तकालके द्वारा सिद्धपदप्राप्त कर लेते हैं। किन्तु अभव्य जीव कभी भी सिद्ध-पद प्राप्त नहीं कर पाते हैं। जिन जीवोंकी मुक्तिपद-प्राप्तिरूप सिद्धि होनेवाली है, अथवा जो उसकी प्राप्तिके योग्य हैं, उन्हें भव्यसिद्ध कहते हैं । जो इनसे विपरीत स्वरूपवाले हैं, वे अभव्य कहलाते हैं और वे कभी संसारसे छूटकर सिद्ध नहीं होते हैं ॥१५५-१५६॥ भव्यत्व और अभव्यत्वसे रहित जीवोंका वर्णन ण य जे भव्वाभव्वा मुत्तिसुहा होति तीदसंसारा । ते जीवा णायव्वा णो भव्या णो अभव्या य ॥१५७॥ जो न भव्य हैं और न अभव्य हैं, किन्तु जिन्होंने मुक्ति-सुखको प्राप्त कर लिया है और अतीत-संसार हैं, अर्थात् पंचपरिवर्तनरूप संसारको पार कर चुके हैं, उन जीवोंको 'नो भव्य नो अभव्य जानना चाहिए ॥१५७।। इस प्रकार भव्यमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। 1. सं० पञ्चसं० १, २८३ । १. १, २८४ । ३.१, २८५ । १. ध० भा० १ पृ० १५०, गो० जी० ५५७, परं तत्र 'सिद्धत्तणस्य' स्थाने 'भब्वत्तणस्य' इति पाठः। २. ध० भा० १ पृ. ३६४, गो० जी० ५५६ । ३. गो० जी० ५५८ । __*ब सिद्धि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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