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________________ कर्मस्तव उदीरणा-योग्य एक सौ बाईस प्रकृतियोंमेंसे सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, तीर्थंकर और आहारकद्विकके विना मिथ्यात्वगुणस्थानमें एक सौ सत्तरह प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है। यहाँ पर उदीरणाके अयोग्य पाँच, और सर्व अनुदीर्ण प्रकृतियाँ इकतीस हैं। मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें नरकानुपूर्वीके विना उदीरणा-योग्य प्रकृतियाँ एक सौ ग्यारह हैं, उदीरणाके अयोग्य ग्यारह और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ सैंतीस हैं। यहाँ पर अनन्तानुबन्धी-चतुष्फ आदि नौ प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। मिश्रमें तियश्च, मनुष्य और देव-आनुपूर्वीके विना, तथा सम्यग्मिथ्यात्वके साथ उदीरणाके योग्य प्रकृतियाँ सौ हैं । उदीरणाके अयोग्य बाईस और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ अड़तालीस हैं। यहाँ पर एक सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। अविरतमें उदीरणाके योग्य एक सौ चार हैं, क्योंकि यहाँ सभी आनुपूर्वियोंकी और सम्यक्त्वप्रकृतिको उदीरणा होने लगती है। उदीर गाके अयोग्य अट्ठारह और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ चवालीस हैं। यहाँ पर अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क आदि सत्तरह प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। देशविरतमें सत्तासी प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है, उदीरणाके अयोग्य पैंतीस है, अनुदीर्ण प्रकृतियाँ इकसठ हैं और प्रत्याख्यानावरण-चतुष्क आदि आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्यच्छित्ति होती है। प्रमत्तविरतमें आहारकद्विकके साथ उदीरणा-योग्य प्रकृतियाँ इक्यासी हैं, उदीरणाके अयोग्य इकतालीस हैं अनुदीर्ण प्रकृतियाँ सड़सठ हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायुकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है आगे नहीं होती, ऐसा बतला आये हैं, अतएव इस गुणस्थानमें स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग, सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु; इन आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। अप्रमत्तविरतमें उदीरणाके योग्य तिहत्तर, उदीरणाके अयोग्य उनचास और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ पिचहत्तर हैं । यहाँ पर सम्यक्त्वप्रकृति आदि चार प्रकृतियाँ उदीरणासे व्युच्छिन्न होती हैं। अपूर्वकरणमें उदीरणाके योग्य उनहत्तर, उदीरणाके अयोग्य तिरेपन, और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ उन्यासी हैं। यहाँ पर हास्यादि छह नोकषायोंकी उदीरणाव्युच्छित्ति होती है। अनिवृत्तिकरणमें उदीरणाके योग्य तिरेसठ, उदीरणाके अयोग्य उनसठ और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ पचासी है। यहाँ पर तीनों वेद और संज्वलन क्रोध, मान, मायाकषाय, इन छह प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्मसाम्परायमें उदीरणाके योग्य सत्तावन, उदीरणाके अयोग्य पैसठ और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ इक्यानवे हैं। यहाँ पर एकमात्र संज्वलनलोभकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। उपशान्तकषायमें उदीरणा-योग्य छप्पन, उदीरणाके अयोग्य छयासठ और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ बानवे हैं। यहाँ पर वज्रनाराचादि दो संहननोंकी उदीरणाव्युच्छित्ति होती है। क्षीणकषायके उपान्त्य समय तक चौवन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है, अत: वहाँ पर उदीरणाके अयोग्य अड़सठ और अनुदीर्ण प्रकृतियों चौरानवे जानना चाहिए । यहाँ पर निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंकी उदोरणाव्युच्छित्ति होती है। इसी गुणस्थानके अन्तिम समयमें उदीरणाके योग्य बावन, उदीरणाके अयोग्य सत्तर और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ छयानवे हैं। अन्तिम समयमें ज्ञानावरणकी पाँच, दर्शनावरणकी चार और अन्तरायकी पाँच; इन चौदह प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। सयोगिकेवली गुणस्थानमें तीर्थङ्करप्रकृतिको मिलानेसे उदीरणाके योग्य उनतालीस, उदीरणाके अयोग्य तेरासी और अनुदीर्ण प्रकृतियाँ एक सौ नौ हैं । यतः अयोगिकेवली गुणस्थानमें किसी भी प्रकृतिको उदीरणा नहीं होती, अतः वहाँ पर उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली बारह प्रकृतियोंमेंसे नौकी उदीरणा सयोगिकेवली गुणस्थानमें ही होती है। शेष तीन ( साता-असाता वेदनीय और मनुष्यायु) की उदीरणा छठे गुणस्थानमें होती है, यह पहले बतला आये हैं। इस प्रकार तेरहवें गुणस्थानमें उनतालीस प्रकृतियोंकी उदीरणा-व्युच्छित्ति होती है। अयोगिकेवलीके उदीरणा और उदीरणा-व्युच्छित्तिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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