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________________ पञ्चसंग्रह किन्तु सर्वत्र तिर्यक्षु जीवेषु उद्योतो नास्तीति, केचिदुद्योतं बध्नन्ति, केचिन्न बन्धन्ति । अत उद्योतं विना एकोनत्रिंशकं त्रिकं पूर्वोक्तप्रकृतिस्थानत्रिकं २६।२६।२६ ज्ञेयम् ॥६६॥ एतासु पूर्वोक्ता भङ्गाः ४६०८।२४ । जिस प्रकारसे तीन प्रकारके तीसप्रकृतिक बन्धस्थानोंका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे तीन प्रकारके उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान भी होते हैं। केवल विशेषता यह है कि उन सभीमें उद्योतप्रकृति नहीं होती है ॥६६॥ इन तीनों ही प्रकारके उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थानोंके भंग पूर्वोक्त ४६०८ और २४ ही होते हैं। 'तत्थ इमं छव्वीसं तिरियदुगोराल तेय कम्मं च । एइंदिय वण्णचउ अगुरुयलहुयचउक्कं होइ हुंडं च ॥६७॥ आदावुजोवाणमेयदर थावर बादरयं । पज्जत्तं पत्तेयं थिराथिराणं च एयदरं ॥६॥ एयदरं च सुहासुह दुब्भग जसजुयलमेयदर णिमिणं । अणादिजं चेव तहा मिच्छादिट्ठी दु वंधति ॥६६॥ एस्थ एइंदिएसु अंगवंगं गस्थि, भटुंगाभावादो। संडाणमवि एयमेव हुंडं । आदावुजोव-थिर-सुहजसजुयलाणि २।२।२।२ अण्णोण्णगुणिया भंगा १६ । तत्र तिर्यग्गत्यां इदं षडविंशतिकं नामप्रकृतिस्थानं मिथ्याष्टिीवो बद्ध्वा तिर्यग्जीव उत्पद्यते । किं तत् ? तिर्यग्द्वयं २ औदारिक-तेजस-कार्मणानि ३ एकेन्द्रियं १ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ हुण्डकं १ आतपोद्योतयोरेकतरं स्थावरं बादरं १ पर्याप्तं १ स्थिरास्थिरयोरेकतरं १ शुभाशुभयोरेकतरं १ दुर्भगं १ यशोयुग्मयोरेकतरं १ निर्माणं अनादेयं १ चेति षड़विंशतिं प्रकृतोमिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति २६ ॥६७-६६॥ अत्र एकेन्द्रियेषु अङ्गोपाङ्ग नास्ति, अष्टाङ्गाभावात् । संस्थानं हुण्डकमेव भवति । अत आतपोद्योतस्थिरास्थिर-शुभाशुभ-यशोऽयसोयुगलानि २।२।२।२ भन्योन्यगुणिता भङ्गाः १६ । छव्वीसप्रकृतिक बन्धस्थानकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यरिद्वक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, एकेन्द्रियजाति, वर्णचतुष्क, अगुरुल चुचतुष्क, हुंडकसंस्थान, आतप, और उद्योतमेंसे कोई एक, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर-अस्थिरमेंसे कोई एक, शुभअशुभमेंसे कोई एक, दुर्भग और यशस्कीतियुगलमेंसे कोई एक, निर्माण और अनादेय, इन छव्वीस प्रकृतियोंको एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले मिथ्या दृष्टि देव बाँधते हैं ॥६७-६६।। यहाँपर एकेन्द्रियमें अंगोपाँगनामकर्मका उदय नहीं होता है, क्योंकि उनके हस्त, पाद आदि आठ अंगोंका अभाव है। उनके संस्थान भी एक हुंडक ही होता है। अतः आतप उद्योत, स्थिर-अस्थिर, शुभ- अशुभ और यश कीर्ति-अयश कीर्ति युगलोंको परस्पर गुणा करनेपर (२x२x२x२=१६) सोलह भंग होते हैं । 1. सं० पञ्चसं० ५,७७-७६ । 2. ५,८०। *ब तेज। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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