SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका ३३६ नहीं पाया जाता। इसलिए पाँच संस्थान, पाँच संहनन और स्थिरादि छह युगलोंके तथा विहायोगतिद्विकके परस्पर गुणा करनेसे ( ५×५×२४२x२x२x२x२x२= ३२०० ) तीन हजार दो सौ भंग होते हैं । ये सर्व भंग पूर्वोक्त ४६०८ में प्रविष्ट होने से पुनरुक्त होते है, अतः उनका ग्रहण नहीं किया गया है । तह य तदीयं तीसं तिरियदुगोराल तेज कम्मं च । ओरालियंगवंगं हुंडम संपत्त वण्णचदुं ॥ ६३ ॥ अगुरुयलयहुयचउकं तसच उज्जवमपसत्थगई । थिर - सुह-जस जुगलाणं तिष्णेयदरं अणादेजं ॥ ६४ ॥ दुब्भग- दुस्सर - णिमिणं वियलिंदियजाइ एयदरमेव । एयाओ पयडीओ मिच्छाइट्ठी दु बंधंति ॥६५॥ 2 एत्थ वियलिंदियाणं एयहुंडसंठाणमेव । तहा एदेसिं बंधोदयाणं दुत्सरमेव । इदि थिर- सुहजसजुयल तिष्णिवियलिंदियजाईओ २।२।२।३ अण्णोष्णगुणिया भंगा २४ । तथा तृतीयं नामकर्मप्रकृतिस्थानं त्रिंशत्कं मिथ्यादृष्टिर्जीवो मनुष्य स्तिर्यग्वा बद्ध्वा विकलत्रयजीवः तिर्यग्गतावुत्पद्यते । तत्किम् ? तिर्यग्द्वयं २ औदारिक- तैजस- कार्मणत्रिकं ३ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ हुण्डकं १ स्पाटिकं १ वर्णचतुष्कं ४ अगुरुलघुचतुष्कं ४ त्रसचतुष्कं ४ उद्योतं १ अप्रशस्त विहायोगतिः १ स्थिर-शुभयशोयुगलानां त्रयाणामेकतरं १|१|१ | अनादेयं १ दुर्भगं १ दुस्वरं १ निर्माणं १ विकलेन्द्रियजात्येकतरं १ चेत्येताः प्रकृतोः ३० मिथ्यादृष्टयो बध्नन्ति ॥ ६३-६५ ॥ अत्र विकलेन्द्रियाणामेकं हुण्डसंस्थानं भवति । एतेषां विकलत्रयाणां बन्धोदययोः दुःस्वरमेव भवति । इति स्थिर - शुभ- यशोयुगलानि त्रीणि विकलत्रयजातित्रयं २।२।२|३ | अन्योन्यगुणितभङ्गाः २४ । इसी प्रकार तीसप्रकृतिक तृतीय बन्धस्थान है । उसकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं – तिर्यद्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारि कशरीर अंगोपांग हुंडकसंस्थान, असंप्राप्त पाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ और यशः कीर्त्ति; इन तीन युगलों में से कोई एक एक; अनादेय, दुभंग, दुःस्वर, निर्माण और विकलेन्द्रिय जातियों में से कोई एक, इन प्रकृतियोंको मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यञ्च ही बाँधते हैं ॥६३-६५॥ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विकलेन्द्रियजीवोंके हुंडकसंस्थान ही होता है। तथा इनके दुःस्वरप्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है । इनकी तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ तथा स्थिर, शुभ और यशस्कीर्त्ति युगल; इनके परस्पर गुणा करनेसे ( ३x२x२x२= २४ ) चौबीस भंग होते हैं । 'जह + तिहं तीसाणं तह चैव य तिण्णि ऊणतीसं तु । वरि विसेसो जाणे उज्जीवं णत्थि सव्वत्थ ॥ ६६ ॥ एयासु पुव्वुत्तभंगा ४६०८ । २४ । यथा त्रिंशत्कानां त्रिकं ३०|३०|३० तथैव एकोनत्रिंशत्कानां त्रिकं २६।२६।२६ । नवरि विशेषः, 1. सं० पञ्चसं० ५, ७१-७३ । २. ५, ७४-५५ । ३. ५, ७६ । ब जिह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy