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________________ - सप्ततिका सूचित कर रहे हैं कि उक्त बन्धादि स्थानोंका गति आदि चौदह मार्गणाओंका आश्रय लेकर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारोंसे भी जानना चाहिए। प्राकृत पंचसंग्रहके संस्कृत टीकाकारने 'अथवा' कहकर उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव इन आठके द्वारा भी जाननेकी सूचना की है, क्योंकि गाथामें 'अट्ठहि' ऐसा सामान्य पद ही प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार 'चउप्पयारेण' भी सामान्य पद है, सो उसका दिगम्बर टीकाकारोंने तो बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन चार प्रकारोंसे जाननेकी सूचना की है। किन्तु चूर्णिकारने प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार प्रकारों से जाननेकी सूचना की है । श्वे० संस्कृत टीकाकारोंने भी यही अर्थ किया है। अब मूल सप्ततिकाकार उदयसे उदीरणाकी विशेषता बतलाते हैं[मूलगा०४६]'उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विजदि विसेसो । मोत्तूण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं ॥४७३॥ विद्यानन्दीश्वरं देवं मल्लिभूषणसद्गुरुम् । लक्ष्मीचन्द्रं च वीरेन्दं वन्दे श्रीज्ञानभूषणम् ॥ एकचत्वारिंशत्प्रकृतीमुक्वा शेषाणां सप्तोत्तरशतप्रकृतीनां उदयस्योदीरणायाश्च स्वामित्वाद्विशेषो न विद्यते । एकचत्वारिंशत्प्रकृतीना ४१ विशेषो वर्तते ॥४७३॥ तथा चोक्तम् न चत्वारिंशतं सैकं परित्यज्यान्यकर्मणाम् । विपाकोदीरणयोरस्ति विशेषः स्वाम्यतः स्फुटम् ॥२६॥ मिश्रसासादनापूर्वशान्तायोगान् विमुच्य सा । योजनीया गुणस्थाने विभागेन विचक्षणैः ॥३०॥ वक्ष्यमाण इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृति योंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है ।।४७३॥ विशेषार्थ-यथाकालमें प्राप्त कर्म परमाणुओं के अनुभवन करनेका नाम उदय है और अकाल-प्राप्त अर्थात् उदयावलीसे बाहर स्थित कर्म-परमाणुओंका सकषाय या अकषाय योगको परिणति-विशेषसे अपकर्षणकर उदयावलीमें लाकर-उदय-प्राप्त कर्म-परमाणुओंके साथ अनुभव करनेका नाम उदीरणा है। इस प्रकार फलानुभवकी दृष्टिसे स्वामित्वकी अपेक्षा उदय और उदीरणामें कोई विशेषता नहीं है। इन दोनोंमें यदि कोई विशेषता है, तो केवल काल प्राप्त और अकाल प्राप्त परमाणुओंकी है। उदयमें काल प्राप्त कार्य परमाणुओंका और उदीरणामें अकालप्राप्त परमाणुओंका वेदन या अनुभवन किया जाता है। ऐसी व्यवस्था होनेपर भी सामान्य नियम यह है कि जहाँ पर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँ पर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है। किन्तु इसके कुछ अपवाद हैं। पहला अपवाद यह है कि जिन प्रकृतियोंकी स्वो सत्ता-व्युच्छित्ति होती है, उनकी उदीरणा-व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले हो जाती है और उदय-ब्युच्छित्ति एक आवलीके पश्चात् होती है दूसरा अपवाद यह है कि वेदनीय और मनुष्यायुकी उदीरणा प्रमत्तविरत गुणस्थान-पर्यन्त ही होती है। जब कि इनका उदय चौदहवें 1. सं० पञ्चसं० ५, ४४२ । १. सप्ततिको० ५४ । २. सं० पञ्चसं० ५, ४४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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