SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० पञ्चसंग्रह मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि चारों जातिकी सोलह कषायोंमेंसे कोई एक क्रोधादिचतुष्क, तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक, इन दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, इन दश प्रकृतियोंका उदय एक जीवमें एक साथ मिथ्यात्वगुणस्थानमें होता है। इस दशप्रकृतिक उदयस्थानमेंसे निध्यात्वके कम कर देने पर शेष नौ प्रकृतियोंका उदय दूसरे गुणस्थानमें होता है। नौप्रकृतिक उदयस्थानमेंसे अनन्तानुबन्धी क्रोधादि एक कषायके कम कर देने पर शेष आठ प्रकृतियोंका उदय तीसरे और चौथे गुणस्थानमें होता है। पुनः क्रमसे दूसरी और तीसरी कषाय के कम कर देने पर सात प्रकृतियोंका उदय पाँचवें गुणस्थानमें और छह प्रकृतियोंका उदय छठे सातवें और आठवें गुणस्थानमें होता है। पुनः भययुगलमें से एकके कम कर देने पर पाँच प्रकृतियोंका और दोनोंके कम कर देने पर चार प्रकृतियोंका उदय भी छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानोंमें होता है । पुनः हास्ययुगलके कम कर देने पर पुरुषवेद और कोई एक संज्वलन कषाय इन दो प्रकृतियोंका उदय नवें गुणस्थानके सवेद भाग तक होता है । पुनः पुरुषवेदके भी कम कर देने पर एकप्रकृतिक उदयस्थान नवें गुणस्थानके अवेद भागसे लेकर दशवें गुणस्थानके अन्तिम समय तक होता है ॥३१-३२॥ ___ इस प्रकार दशप्रकृतिक उदयस्थानमेंसे क्रमशः मिथ्यात्व आदिके कम करने पर शेष नौ, आठ आदि प्रकृतिक उदयस्थान हो जाते हैं। उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१०६। ७।६।४।२।१। अब मोहनीय कर्मके सत्वस्थानोंका निरूपण करते हैं[मूलगा०१३] 'अट्ट य सत्त य छक्कय चउ तिय दुय एय अहियवीसा य । तेरे वारेयारं एत्तो पंचादि एगूणं ॥३३॥ २८।२७।२६।२४।२३।२२।२१।१३।१२।११।५।।३।२।। अथ मोहनीयस्य सत्वस्थानकं तत्रियोगं च गाथाचतुष्केणाऽऽह-[अह य सत्त य छक्कय' इत्यादि। अष्ट-सप्त-पट-चतुस्विद्वय काधिकविंशतयः त्रयोदश द्वादशैकादश इतः परं पञ्चायकैकोनं च सत्त्वस्थानं स्यात् ॥३३॥ २८।२७।२६।२४।२३।२२।२१।१३।१२।११।५।।३।२।। एवं मोहप्रकृतिसत्त्वस्थानानि पञ्चदश भवन्ति १५। __अट्ठाईस, सत्ताइस, छब्बीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक, इस प्रकार मोहकर्मकी प्रकृतियों के पन्द्रह सत्त्वस्थान होते हैं ॥३३॥ इन सत्त्वस्थानोंको अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, १। [मूलगा०१४] संतस्स पयडिठाणाणि ताणि मोहस्स होंति पण्णरसं । बंधोदय-संते पुणु भंगवियप्पा बहुं जाणे ॥३४॥ मोहस्य सत्त्वप्रकृतिस्थानानि तानि पञ्चदश भवन्ति । पुनः मोहस्य बन्धोश्यसत्वस्थानेषु बहून् भङ्ग-विकल्पान् जानीहि ॥३॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४२-४३ । १. सप्ततिका० १२ । २. सप्ततिका० १३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy