SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पश्चसंग्रह जैन-साहित्यमें कर्म-सिद्धान्तका सबसे प्राचीन प्रतिपादन पूर्वोमें किया गया था। जैन-धर्मके अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीरने जो उपदेश दिया उसको उनके गणधरों व साक्षात् शिष्योंने बारह अंगोंमें विभक्त किया। इन्हें ही द्वादशांग श्रुत या जैनागम कहा जाता है। बारहवें श्रुतांगका नाम दृष्टिवाद है और उसीके भीतर विद्यमान चौदह खण्डोंका नाम 'पूर्व' है। वे पूर्व इस कारण कहलाये कि भगवान् महावीरने उन्हींका सर्वप्रथम उपदेश दिया था। नाना उल्लेखोंपरसे यह भी अनुमान किया जाता है कि उनमें भगवान महावीरसे भी पूर्वके तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तोंका समावेश किया गया था, और इसीलिए वे पूर्व कहलाये । दुर्भाग्यसे वे पूर्व नामक ग्रन्थ कालक्रमसे विनष्ट हो गये। तथापि जैन-समाजके दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दोनो सम्प्रदाय इस सम्बन्धमें एकमत हैं कि उक्त १४ पूर्वोमें दूसरा पूर्व आग्रायणीय नामक था और उसीके भीतर कर्म-सिद्धान्तका सूक्ष्म विवेचन किया गया था। उसीके आधारसे पश्चात्कालमें दिगम्बर सम्प्रदायके क्रमशः षट्खण्डागम व उनकी धवला टीका, कषायप्राभूत और उसकी चूणि व जयधवला टीका, गोम्मटसार व उसकी टीकाएँ तथा प्राकृत व संस्कृत पञ्चसंग्रह नामक ग्रन्थोंकी रचना हुई, तथा श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी कर्मप्रकृति, पञ्चसंग्रह तथा उनके कर्म-ग्रन्थों का निर्माण हुआ। ... प्रस्तुत पञ्चसंग्रह नामक ग्रन्थ कर्म-सिद्धान्तको उक्त दिगम्बर परम्पराको एक विशिष्ट रचना है, जो हाल ही प्रकाशमें आई है। उसके पाँच प्रकरणों के नाम हैं-जीवसमास, प्रकृति-समुत्कीर्तन, कर्मस्तव, शतक और सत्तरी । इनमेंसे प्रथम तीन अधिकारों के नाम तो उनके विषयको सूचित करनेवाले हैं, किन्तु शतक और सत्तरी विषयको नहीं, किन्तु विषयको प्रतिपादन करनेवाली मूल सौ और सत्तर गाथाओंको देखकर रख दिये गये हैं। यथार्थत: ये नाम मूल ग्रन्थमें पाये भी नहीं जाते। शतककी प्रथम मूलगाथामें कहा गया है कि यह बन्ध-समास प्रकरण संक्षेप रूपसे कर्मप्रवाद नामक श्रुतसागरका निस्यन्दमात्र वर्णन किया गया है। इसी प्रकार सत्तरीकी प्रथम मूलगाथामें कर्ताने कहा है कि मैं यहाँ बन्धोदय व सत्त्व प्रकृति-स्थानों को दृष्टिवादके निस्यन्द रूप संक्षेपसे कहता हूँ तथा ७१ वी मूलगाथामें कहा है कि मैंने उक्त विषयका प्रतिपादन उस दृष्टिवादके आधारसे किया है जो दुर्गमनीय, निपुण, परमार्थ, रुचिर और बहुभङ्गी युक्त हैं। . ____श्वेताम्बर पञ्चसंग्रहमें भी अन्तिम दो प्रकरणों के नाम ये ही शतक और सत्तरी पाये जाते हैं । उसके प्रथम तीन प्रकरणों के नाम सत्त्वकर्मप्राभृत, कर्मप्रकृति और कषायप्राभूत ध्यान देने योग्य हैं। दिगम्बर परम्परामें कषायप्राभूत गुणधर आचार्यकृत गाथात्मक रचना है और उसमें रागद्वेषात्मक बन्धहेतुओं का ही प्ररूपण किया गया है। षट्खण्डागमकी धवला टीकाके अनुसार दृष्टिवादके द्वितीय पूर्व आग्रायणीयके पांचवें , अधिकारका नाम च्यवनलब्धि था और उसके २० पाहुड़ोंमेंसे चतुर्थ पाहुड़का नाम था कर्म-प्रकृति । इसी कर्म-प्रकृति पाहड़के अन्तर्गत कृति, वेदना आदि २४ अधिकार थे जिनका संक्षेप परिचय षट्खंडागम व उसकी धवला टीकामें कराया गया है और उसे संतकम्मपाहुड़ भी कहा गया है। इस प्रकार जहाँ तक कर्मसिद्धान्तका सम्बन्ध है, न केवल विषयकी दष्टिसे किन्तु अपने प्राचीनतम ग्रन्थोंके नामों तकमें दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके बीच कोई विशेष भेद नहीं पाया जाता । प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके पांचों अधिकारोंमें मूल गाथाओंको संख्या ४४५ तथा भाष्यगाथाओंकी संख्या ८६४ कूल १३०९ दिखाई देती है। प्रथम दो अधिकारोंमें भाष्यगाथाएँ नहीं है, तथा दूसरे प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तनमें गाथाएँ केवल १० ही है, किन्तु कर्म प्रकृतियोंको गिनानेवाला बहुत-सा अंश प्राकृत गद्यमें है, के प्रथम खंड जोवट्ठाणकी प्रकृति-समुत्कीर्तन नामक प्रथम चूलिकासे प्रायः जैसेका-तैसा उद्धृत किया गया है और अधिकारका नाम भी वही है। समस्त रचना गोम्मटसारसे भी खूब मेल खाती है । गोम्मटसारका भी दूसरा नाम पञ्चसंग्रह है। वहाँ भी जीवकाण्डकी प्रथम गाथामें 'जीवस्य परूवणं वोच्छं' रूपसे अधिकारके विषयका निर्देश किया गया है जो इस संग्रहमें भी जैसाका तैसा पाया जाता है। उसी प्रकार कर्मकाण्डके आदिमें 'पयडिसमुकित्तणं वोच्छं' रूपसे जैसी अधिकारकी सुचना की गई है ठीक वैसी ही यहाँपर पाई जाती है। गोम्मटसारका तीसरा अधिकार 'बंधदयरात्तजुत्तं ओघादेसे थवं वोच्छं' इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy