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________________ प्रधान सम्पादकों का वक्तव्य कर्म और कर्मफलका चिन्तन मानव जीवनकी एक प्राचीनतम प्रवृत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति यह देखना और जानना चाहता है कि वह जो कुछ करता है उसका क्या फल होता है। इसी अनुभव के आधारपर वह यह भी निश्चित करता है कि किस फलकी प्राप्ति के लिए उसे कौन-सा काम करना चाहिए। इस प्रकार मानवीय सभ्यताका समस्त ऐतिहासिक, सामाजिक व धार्मिक चिन्तन किसी-न-किसी प्रकार कर्म और कर्मफलको अपना विषय बनाता चला आ रहा है। कर्म व कर्मफल सम्बन्धी चिन्तनकी दृष्टिसे संसारके समस्त दर्शनों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - एक वे दर्शन हैं जो कर्मफल सम्बन्धी कारण कार्य परम्पराको इस जीवन-भर तक चलनेवाली ही मानते हैं। वे यह विश्वास नहीं करते कि इस देहके विनष्ट हो जानेपर उसके कार्योंकी कोई परम्परा आगे चलती है। ऐसी मान्यता रखनेवाले दर्शनोंको भौतिकवादी कहा जाता है, क्योंकि उसके अनुसार जीवन सम्बन्धी समस्त प्रवृत्तियाँ पञ्च भूतोंके मेलसे प्राणीके गर्भ या जन्म कालसे प्रारम्भ होती हैं और आयुके अन्तमें शरीरके विनष्ट होकर पञ्चभूतोंमें मिल जानेपर उसकी समस्त प्रवृत्तियोंका अवसान हो जाता है । इसके विपरीत दूसरे प्रकारके वे दर्शन हैं जो मानते हैं कि पञ्चभूतात्मक शरीर के भीतर एक अन्य तत्त्व, जीव व आत्मा, विद्यमान है जो अनादि और अनन्त है । उसकी अनादि कालीन सांसारिक यात्राके बीच किसी विशेष भौतिक शरीरको धारण करना और उसे त्यागना एक अवान्तर घटनामात्र है । आत्मा ही अपने भौतिक शरीरके साधनसे नाना प्रकारकी मानसिक, वाचिक व कायिक क्रियाओं द्वारा नित्य नये संस्कार उत्पन्न करता, उसके फलोंको भोगता और उन्हींके अनुसार एक योनिको छोड़ दूसरी योनिमें प्रवेश करता रहता है, जब तक कि वह विशेष क्रियाओं द्वारा अपनेको शुद्ध कर इस जन्म-मरण रूप संसारसे मुक्त होकर सिद्ध नहीं हो जाता। ऐसी ही मुक्ति व सिद्धि प्राप्त करना मानव जीवनका परम उद्देश्य होना चाहिए और इसी उद्देश्यको पूर्ति के लिए आचायोंने धर्मका उपदेश दिया है। इस प्रकारकी मान्यताओंको स्वीकार करनेवाले दर्शन अध्यात्मवादी कहलाते हैं । जैन दर्शन अध्यात्मवादी है और कर्म सिद्धान्त उसका प्राण है। जैन कर्म सिद्धान्तमें यह चिन्तन बड़ी गम्भीरता, सूक्ष्मता और विस्तारसे किया गया है कि विश्वके मूल तत्व क्या हैं और उनमें किस प्रकारके विपरिवर्तनों द्वारा प्रकृति और जीवनके नाना रूपोंकी विचित्रता उत्पन्न होती है। जैन मान्यतानुसार विश्वके मूल तत्व दो हैं—जीव और अजीव अथवा वेतन और जड़ निर्जीव अवस्थामें पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु मे सब एक ही जड़ तत्त्वके रूपान्तर हैं, जिसे जैन दर्शन में पुद्गल कहा गया है। आकाश और काल भी जड़ तत्त्व हैं, किन्तु वे उपर्युक्त पृथ्वी आदिके समान मूर्तिमान् नहीं अमूर्त है। जीव व आत्मा इन सबसे पृथक् तत्त्व है जिसका लक्षण है चेतना । वह अपनी सत्ताका भी अनुभव करता है और अपने आस-पास के पर पदार्थोंका भी ज्ञान रखता है। उसको इन्हीं दो वृत्तियोंको जैन सिद्धान्त में दर्शन और ज्ञानरूप उपयोग कहा गया है। दैहिकावस्था में यह जीव अपनी रागद्वेषात्मक मन-वचन-कायको प्रवृत्तियों द्वारा सूक्ष्मतम पुद्गल परमाणुओंको ग्रहण करता है और उनके द्वारा नाना प्रकारके आभ्यन्तर संस्कारोंको उत्पन्न करता है। जिन सूक्ष्म परमाणुओंको जीव ग्रहण करता है उन्हें ही जैन सिद्धान्त में कर्म कहा गया है। उनके आत्म-प्रदेशोंमें आ मिलनेकी प्रक्रियाका नाम आस्रव है, और इस मेलके द्वारा जो शक्तियाँ व आत्म-स्वरूपकी विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं उनका नाम बग्ध है। कर्मबन्धकी इसी प्रक्रियाको विधिवत् समझाना जैन कर्म सिद्धान्तका विषय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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