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पञ्चसंग्रह दर्शनमार्गणा, वर्शनका स्वरूप
'जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटु आयारं ।
अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए ॥१३८ सामान्य-विशेषात्मक पदार्थों के आकार-विशेषको ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्परूपसे अंशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागममें दर्शन कहा गया है ।।१३८॥ चक्षुदर्शन और अचचुदर्शनका स्वरूप
'चक्खूण जं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विति ।
सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु ति ॥१३६।। • चक्षुरिन्द्रियके द्वारा जो पदार्थका सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष चार इन्द्रियों से और मनसे जो सामान्य-प्रतिभास होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए ॥१३६॥ अवधिदर्शनका स्वरूप
परमाणुआदियाइं अंतिमखंध त्ति मुत्तदव्वाई।
तं ओहिदसणं पुण जं पस्सइ ताई पञ्चक्खं ॥१४०॥ ____ सर्व-लघु परमाणुसे आदि लेकर सर्व-महान् अन्तिम स्कन्ध तक जितने मूर्त द्रव्य हैं, उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं ॥१४०॥ केवलदर्शनका स्वरूप
'बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्हि खेत्तम्हि ।
लोयालोयवितिमिरो सो केवलदसणुजोवो ॥१४१॥ बहुत जातिके और बहुत प्रकारके चन्द्र-सूर्यादिके उद्योत (प्रकाश) तो परिमित क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं, अर्थात् वे थोड़ेसे ही पदार्थों को अल्प परिमाणमें प्रकाशित करते हैं । किन्तु जो केवलदर्शनरूप उद्योत है, वह लोकको और अलोकको भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत्को स्पष्ट देखता है ।।१४१॥
इस प्रकार दर्शनमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। लेश्यामार्गणा, लेश्याका स्वरूप
लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च ।
जीवो ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खायां ॥१४२॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २४६ । '. १, २५० । . १, २५१ (पूर्वार्ध)। 4. १, २५१ ( उत्तरार्ध)। १. ध० भा० १ पृ० १४६, गा० ६३ । गो० जी० ४८१ । २. ध० भा० . पृ० ३८२, गा० १६५। गो० जी० ४८३ । ३. ध० भा० १ पृ० ३८२, गा० १६६ । गो० जी० ४८४ । ४. ध० भा० १ पृ० ३८२, गा० १६७ । गो० जी० ४८५। ५. ध० भा० १ पृ० १५०, गा० ६४ । गो० जी० ४८८, परं तत्र द्वितीय-चरणे 'गियअपुष्णपुण्णं च' इति पाठः । * बत्त । दतं ।
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