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________________ ४८ पञ्चसंग्रह दुरहिगंधणाम चेदि। जं रसणामकम्म तं पंचविहं--तित्तणाम कडयणाम कसायणाम अंबिलणाम महुरणाम चेदि । जं फासणामकम्म तं अट्टविहं-कक्खडणाम मउयणाम गरुयणाम लहुयणाम णिद्धणाम लुक्खणाम सीयणाम उण्हणाम चेदि । ____ जो वर्णनामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-कृष्णवर्णनाम, नीलवर्णनाम, रक्तवर्णनाम, पीतवर्णनाम और शुक्लवर्णनाम । जो गन्धनामकर्म है, वह दो प्रकारका है-सुरभिगन्धनाम और दुरभिगन्धनाम । जो रसनामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-तिक्तनाम, कटुकनाम, कषायनाम, आम्लनाम और मधरनाम। जो स्पर्शनामकर्म है, वह आठ प्रकारका है-कर्कशनाम, मृदुनाम, गुरुनाम, लघुनाम, स्निग्धनाम, रूतनाम, शीतनाम और उष्णनाम। जं आणुपुव्वीणामकम्म तं तं चउविहं-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणाम तिरियगइपाओग्गाणुपुवीणाम मणुयगइ पाओग्गाणुपुव्वीणाम देवगइपाओग्गाणुपुव्वीणाम चेदि । जं विहायगइणामकम्म तं दुविहं-पसत्थविहायगइणाम अपसत्थविहायगइणाम चेदि । जो आनुपूर्वी नामकर्म है, वह चार प्रकारका है--नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वोनाम और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीनाम । जो विहायोगतिनामकर्म है, वह दो प्रकारका है--प्रशस्तविहायोगतिनाम और अप्रशस्तविहायोगतिनाम । ___जं गोयकम्म तं दुविहं-उच्चगोयं णीचगोयं चेदि । जं अंतरायकम्म तं पंचविहं-दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोयंतराइयं उवभोयंतराइयं विरियंतराइयं चेदि । जो गोत्रकर्म है, वह दो प्रकारका है--उच्चगोत्र और नीचगोत्र । जो अन्तरायकर्म है, वह पांच प्रकारका है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। बन्ध-योग्य प्रकृतियों का निरूपण पंच णव दोण्णि छव्वीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोण्णि य पंच य भणिया एयाओ बंधपयडीओ ॥५॥ ज्ञानावरणीयकी पाँच, दर्शनावरणीयकी नौ, वेदनीयको दो, मोहनीयकी छब्बीस, आयुकर्मकी चार, नामकर्मकी सड़सठ, गोत्रकर्मकी दो और अन्तरायकर्मकी पाँच; इस प्रकार एक सौ बीस ( १२०) बंधने योग्य उत्तरप्रकृतियाँ कहीं गई हैं ॥५॥ बन्ध-प्रकृतियाँ १२० । बन्धके अयोग्य प्रकृतियोंका निरूपण चण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्ममिच्छत्तं । होंति अबंधा बंधण पण पण संघाय सम्मत्तं ॥६॥ 1. सं० पञ्चसं० २, ३६ । 2. २, ३७ । १. षट्० प्र० स० चू० सू० ३८ । २. एट० प्र० स० चू० सू० ३६ । ३. पट० प्र० स० चू० सू०४०। ४. षट० प्र० स० चू० सू० ४१ । ५. षट्० प्र० स० चू० सू० ४३ । ६. षट् ० प्र० स० चू० सू० ४५। ७. षट० प्र० स० चू० सू० ४६ । ८. गो. क. ३५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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