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________________ पञ्चसंग्रह चतुर्दशमार्गणासु योगरचनाइन्द्रियमार्गणायां कायमार्गणायां१० दी त्री० च० पं० पृ० अ० ते. वा०व० ० गोगाजाया गतिमार्गणायांन० ति० म० दे० मनोयोगेस. मृ० स० अ० वचनयोगेस० मृ० स० अ० काययोगेऔ० औ० मि० वै० वै०मि. आ० आ०मि. का० वेदमार्गणायांकषायमागणायां ज्ञानमार्गणायांस्त्री० पु० न० क्रो० मा० माया० लो० कुम० कुश्रु० वि० म० श्रु० अ० म० के० १३ १५ १३ १५ १५ १५ १५ १३ १३ १० १५ १५ १५ १ . संयममार्गणायां- दर्शनमार्गणायां- लेश्यामार्गणायां- भव्यमार्गणायांसा. छे० प० सू० य० स० अ० | च० अ० अव० के०| कृ. नी. का. ते० प० शु० भ० अ० ११ ११ १ ११ १ १३१ १२ १५ १५ ७ । १३ १३ १३ १५ १५ १५ । १५ १३ ___ सम्यक्त्वमार्गणायां- संज्ञिमार्गणायां- आहारमार्गणायांऔ० वे. क्षा० सा० मिन० मि० सं० अ० आ. अना० १३ ५५ ५५ १३ १० १३ १५ ४ १४ १ सूक्ष्म एकेन्द्रिय, और बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंनेन्द्रिय इन छह पर्याप्तक जीवसमासोंमेंसे आदिके दो जीवसमासोंमें केवल एक औदारिककाययोग होता है, और शेष चार पर्याप्तक जीवसमासोंमें औदारिककाययोग और असत्यमृषावचनयोग ये दो योग होते हैं। सातों अपर्याप्तक जीवसमासोंमें यथासंभव औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाययोग होता है। असत्यमृषावचनयोग द्वीन्द्रियादि चार पर्याप्तक जीवसमासोंमें होता है। संज्ञिपंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक जीवोंमें वैक्रियिकमिश्रकाययोग भी होता है। संज्ञिपंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीवोंमें कार्मणकाययोगको छोड़कर शेष चौदह योग जानना चाहिए ॥४२-४३॥ अव मार्गणाओमें योगोंका निरूपण करते हैं ओरालाहारदुए वन्जिय सेसा दु णिरय-देवेसु । वेउव्वाहारदुगूणा तिरिए मणुए वेउवदुगहीणा ॥४४॥ अथ मार्गणासु यथासंभवं रचनायां रचितयोगान् गाथैकादशकेनाऽऽह-['भोरालाहारदुए' इत्यादि । नरकगत्यां देवगत्यां च औदारिकौदारिकमिश्राऽऽहारकाऽऽहारकमिश्रान चतुरो योगान वर्जयित्वा शेषा एकादश योगाः ११ स्युः। तिर्यग्गतौ वैक्रियिकवैक्रियिकमिश्राऽऽहारकाऽऽहारकमिश्ररूनाः अन्ये एकादश योगाः । मनुष्यगतौ वैक्रियिक-तन्मिश्रद्वयहीनाः शेषाः त्रयोदश १३ योगा भवन्ति ॥४॥ गतिमार्गणाकी अपेक्षा नारकी और देवोंमें औदारिकद्विक अर्थात् औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और आहारकद्विक अर्थात् अहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग इन चार योगोंको छोड़कर शेष ग्यारह-ग्यारह योग होते हैं। तिर्यश्चोंमें वैक्रियिकद्विक अर्थात् वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग तथा आहारकद्विक, इन चार योगोंको छोड़कर शेष ग्यारह योग होते हैं । मनुष्योंमें वैक्रियिकद्विकको छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं ॥४४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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