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________________ शतक नौ जीवसमासोंमें एक योग होता है, चार जीवसमासोंमें दो योग होते हैं और एक जीवसमासमें चौदह योग होते हैं। तद्भवगत अर्थात् अपने वर्तमान भवके शरीर में विद्यमान जीवोंमें ये योग जानना चाहिए। किन्तु भवान्तरगत अर्थात् विग्रहगतिवाले जीवोंके केवल एक कार्मणकाययोग होता है ॥४१॥ विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंके चार जीवसमास और शेष अपर्याप्तकजीवोंके पाँच जीवसमास इन नौ जीवसमासोंमें सामान्यसे एक काययोग होता है। किन्तु विशेषकी अपेक्षा सूक्ष्म और बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवोंके औदारिककाययोग तथा सूक्ष्म और बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय मिश्रकाययोग होता है। 'पण्णरस इस पाठान्तरकी अपेक्षा कुछ आचायाँके अभिप्रायसे बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंके वैक्रियिककाययोग और बादरवायुकायिक अपर्याप्तोंके वैक्रियिकमिश्रकाययोग होता है। शेष द्वीन्द्रियादि सर्व अपर्याप्तक जीवोंके एकमात्र औदारिकमिश्रकाययोग ही होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तक, इन चारों जीवसमासोंके औदारिककाययोग और असत्यमृषावचनयोग, ये दो-दो योग होते हैं। संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तक नामके एक जीवसमासमें चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और सातों काययोग, इस प्रकार पन्द्रह योग होते हैं। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि पर्याप्तकसंज्ञिपंचेन्द्रियके जो अपर्याप्तकदशोंमें संभव औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग बतलाये गये हैं, सो सयोगिजिनके केवलिसमुद्धातकी अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग कहा गया है, तथा जो औदारिककाययोगी जीव विक्रिया और आहारकऋद्धिको प्राप्त करते हैं, उनकी अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग बतलाया गया है। अन्यथा मिश्रकाययोग अपर्याप्त कदशामें और कार्मणकाययोग विग्रहगतिमें ही संभव हैं। अब भाष्यगाथाकार जीवसमासोंमें योगोंका वर्णन करते हैं 'छसु पुण्णेसु उरालं सत्त अपजत्तएसु तम्मिस्सं । भासा असच्चमोसा चदुसुवेइंदियाइपुण्णेसु॥४२॥ सण्णि-अपज्जत्तेसु वेउव्वियमिस्सकायजोगो दु । सण्णी-संपुण्णेसुं चउदस जोया मुणेयव्वा ॥४३॥ अथ नियमगाथाद्वयं कथ्यते-[ छसु पुण्णेसु उरालं' इत्यादि । ] षट्सु पूर्णेषु औदारिककाययोगःएकेन्द्रियसूचम-बादरपर्याप्तौ द्वौ २, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियपर्याप्तास्त्रयः ३, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्ते एकः, इति पण्णां पर्याप्तानां औदारिककाययोग: स्यात् । सप्ताऽपर्याप्तेषु तन्मिश्रः-सूचम-बादरैकेन्द्रिय-द्वि-त्रि-चतु:पन्चेन्द्रियसंझ्य-संज्ञिषु अपर्याप्तेषु सप्तविधेषु औदारिकमिश्रकाययोगः स्यात् । चतुर्यु द्वीन्द्रियादिषु पूर्णेषु असत्यमृपा [ भाषा] स्यात् । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय पन्चेन्द्रियाऽसंज्ञिजीवपर्याप्तानां चतुणां अनुभयभाषौदारिककाययोगो द्वौ २ भवतः ॥४२॥ देव-नारकसंश्यऽपर्याप्तेषु वैक्रियिकमिश्रकाययोगात् , देव-नारकागां अपर्याप्तकाले वैक्रियिकमिश्रकाययोगात् , मनुष्य-तियंगपेक्षया संज्ञिसम्पूर्णेषु पर्याप्तेषु वक्रियिकमिश्रं विना चतुर्दश १४ योगाः ज्ञातव्याः ॥४३॥ 1. ४, 'गतावनाहारकद्वया' इत्यादिगद्यभागः । (पृ० ५०) ॐद पुणे सोरालं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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