________________
४७१
सप्ततिका तस्सुवरि सुकलेसा मिच्छादि-अपव्वतया लेसा ।
चउवीसेण य गुणिदे भंगेहिं गुणिज पच्छा दु ॥३७३॥ अथ लेश्यामाश्रित्य गुणस्थानेषु मोहदयस्थानसंख्यामाह । आदौ गुणस्थानेषु सम्भवल्लेश्याः प्राह[ 'मिच्छादिअप्पमत' इत्यादि । ] मिथ्यादृष्टयाचप्रमत्तान्तगुणस्थानेषु क्रमेण षट ६ षटक ६ षटक ६ षट् ६ तिस्रः ३ तिस्रः ३ तिस्रो ३ लेश्या भवन्ति । तथाहि-मिथ्यादृष्टवादिचतुषु गुणस्थानेषु प्रत्येक षट् ६ लेश्या भवन्ति । देशसंयतादित्रये शुभा एव तिस्रः ३। तत उपर्यपूर्वकरणादिसयोगपर्यन्तमेका शुक्ललेश्यैव । मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू. अनि० सू० उ० क्षो० स० अ०
मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणान्तलेश्या इति स्व-स्वगुणस्थानोक्तमोहोदयस्थानभङ्गाः स्वगुणस्थानोक्तलेश्याभिगुणिताः पश्चाच्चतुर्विशतिभङ्ग २४ गुणिताः ॥३७२-३७३॥
मिथ्यात्व गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक जिनेन्द्रदेवने लेश्याएँ क्रमशः इस प्रकारसे निर्दिष्ट की हैं-छह, छह, छह, छह, तीन, तीन और तीन । अर्थात् चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्याएँ होती हैं। पाँचवेंसे सातवें तक तीनों शुभ लेश्याएँ होती हैं। इससे ऊपरके गुणस्थानोंमें केवल एक शुक्ललेश्या होती हैं। (चौदहवाँ गुणस्थान लेश्या-रहित होता है ।) इनमेंसे मिथ्यात्वसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक की लेश्याओंको अपने-अपने गुणस्थानोंके मोहसम्बन्धी उद्यस्थानों की संख्यासे गुणा करे । पीछे चौबीस भङ्गोंसे गुणा करे ॥३७२-३७३॥
1६।६।६।६।३।३।३।१ मिच्छादिसु उदया ८!४।४।८८८८।४। सग-सगलेसगुणा ४८।२४।२४। ४८२४॥२४॥२४१४ । चउवीसभंगगणा
मिथ्यादृष्ट पाद्यपूर्नभरणान्तोदयस्थानसंख्यामि० सा० मि० भ० दे० प्रम० भप्र. अपू०
स्व-स्वगुणस्थानोक्तलेश्याभिगणिताणिता:मि० सा० मि० भ० दे० प्रम• अप्र० अपू० ૪૬
૨૪ ૪૬ ૨૪ ૨૪ ૨૪ ક. मिथ्यात्वादि आठ गुणस्थानों में लेश्याएँ इस प्रकार हैं-६, ६, ६, ६, ३, ३, ३, १ । इन्हें इन्हीं गणस्थानोंके उदयस्थानोंसे गुणे, जिनकी संख्या इस प्रकार है-८, ४, ४, ८, ८, ८,८,४। इस प्रकार अपनी अपनी लेश्यासे गुणा करने पर ४८, २४, २४, ४८, २४,२४,२४, ४ संख्या आती है । उन्हें चौबीस भङ्गोंसे गुणा करने पर अपने अपने गुणस्थानके भङ्ग आ जाते हैं। जो इस प्रकार हैं
मिच्छादिट्ठी मंगा एक्कारस सया य होंति वावण्णा । सासणसम्मे भंगा छावत्तरि पंचसदिगा य ॥३७४॥
११५२।५७६॥
तथाहि-मिथ्यादृष्टौ स्थानानि दशादीनि चत्वारि है। नवादीनि चत्वारि ८८ मिलित्वाऽष्टौ ८
१०
1. सं० पञ्चसं० ५, ६, ६, ६, ६,' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org