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३० प्रकृतियाँ
ज्ञा० ५, ५०६, मो० १४, अं० ५ )
जघ ० सादि
अध्र०
३०
३०
अज० सादि उत्कृ० सादि
३०
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३० अनु० सादि अना० ध्रुव अब गुणस्थानों की अपेक्षा मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैं[मूलगा०६२] 'आउकस्स पदेसस्स छच्च मोहस्स णव दु ठाणाणि । साणि तणुकसाओ बंधइ उकस्सजोगेण ॥५०२||
मिस्सवज्जेसु पढमगुणेसु ।
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पञ्चसंग्रह
उक्त प्रकृतियोंकी संदृष्टि इस प्रकार है
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शेष उत्तर प्रकृतियाँ ६०
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सादि
६० अज०
सादि
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उत्कृ०
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६० अनु० सादि
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अध्रु०
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अथ मूलप्रकृतीनाभुत्कृष्टप्रदेशबन्धस्य गुणस्थाने स्वामित्वमाह - [ 'आउक्कम्स पदेसस्स' इत्यादि । ] आयुषः उत्कृष्टप्रदेशं मिश्रगुणं विना पड्गुणस्थानान्यतीत्याप्रमत्तो भूत्वा बध्नाति । तु पुनः नवमं गुणस्थानं प्राप्यानिवृत्तिकरणो मोहनीयस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धं बध्नाति । शेषज्ञानावरण-दर्शनावरण- वेदनीय- नाम - गोत्रान्तरायाणां पण्णां सूक्ष्मसाम्पराय एवोत्कृष्टप्रदेशबन्धं बध्नाति । अत्रापि गुणस्थानत्रये उत्कृष्टयोगः प्रकृतिबन्धाल्पतर इति विशेषणद्वयं ज्ञातव्यम् ||५०२॥
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मिश्रवर्जितेषु प्रथमगुणस्थानेषु षट्षु । मिश्रगुणस्थाने आयुषः उत्कृष्टप्रदेशबन्धो नास्ति ।
आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिश्रगुणस्थानको छोड़कर प्रारम्भके छह गुणस्थानोंमें होता है । तथा मोहकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध प्रारम्भके नौ गुणस्थानों में होता है । शेष छह कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको उत्कृष्ट योगसे संयुक्त सूक्ष्मसाम्परायसंयत बाँधता है ||५०२ ॥
यहाँपर मिश्रको छोड़कर प्रारम्भके छह गुणस्थानोंका ग्रहण करना चाहिए ।
विशेषार्थ - प्रकृत गाथामें आठों कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामित्वका निरूपण किया गया है । यह गाथा गो० कर्मकाण्डमें भी २११वीं संख्या के रूप में पाई जाती है । किन्तु वहाँपर जो उसके पूर्वार्धकी संस्कृतटीका पाई जाती है, वह विचारणीय है । टीकाका वह अंश इस प्रकार है
"आयुष उत्कृष्टप्रदेशं पड्गुणस्थानान्यतीत्य अप्रमत्तो भूत्वा बध्नाति । मोहस्य तु पुनः नवमं गुणस्थानं प्राप्य अनिवृत्तिकरणो बध्नाति ।"
वहाँपर इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार किया गया है -- "आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध छ : गुणस्थानों को उल्लंघ सातवें गुणस्थान में रहनेवाला करता है । मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नवम गुणस्थानवर्ती करता है ।"
पञ्चसंग्रहके टीकाकारने इस गाथाकी टीका में केवल 'मिश्रगुणं विना' इतने अंशको छोड़कर शेष अर्थमें गो० कर्मकाण्डकी टीकाका ही अनुसरण किया है । यद्यपि 'मिश्रगुणं विना' इतना अंश उन्होंने उक्त गाथा के अन्तमें दी गई वृत्ति 'मिस्सवज्जेसु पढमगुणेसु' के सामने रहने से दिया
1. सं० पञ्चसं० ४, ३५१-३५३ ।
१. शतक० ६३ । परं तत्र पूवार्धे पाठोऽयन् - 'आउक्कस्स पएसस्स पंच मोहस्स सत्त ठाणाणि' | गो० क० २११ ।
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