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________________ शतक २८५ है, तथापि उक्त दोनों टीकाओं में किया गया अर्थ न तो मूलगाथाके शब्दोंसे ही निकलता है और न महाबन्धके प्रदेशबन्धगत स्वामित्व अनुयोगद्वारसे ही उसका समर्थन होता है। महाबन्धमें आयु और मोहकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके स्वामित्वका निरूपण इस प्रकार किया गया है "मोहस्स उकस्सपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स चदुगदियस्स पंचिंदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिटिस्स वा सम्मादिहिस्स वा सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयदस्स सत्तविहबन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्वस्सए पदेसबंधे वट्टमाणस्य । आउगस्स उक्कस्तपदेसबन्धो कस्स ? अण्णदरस्स वदुगदियस्स पंचिंदियस्स सण्णिस्स मिच्छादिहिस्स वा सम्मादिहिस्स वा सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयस्स अट्ठविहबन्धगस्स उक्कस्सजोगिस्स ।" ( महाबन्ध पु० ६ पृ० १४) इस उद्धरणमें आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध न केवल अप्रमत्तके बतलाया गया है और न मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध केवल अनिवृत्तिकरणके बतलाया गया है। किन्तु स्पष्ट शब्दोंमें कहा गया है कि आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध आठो कर्मों के बाँधनेवाले पश्चेन्द्रिय संज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवके होता है, तथा आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोका बन्ध की पंचेन्द्रिय मिथ्यावृष्टि और सम्यग्दृष्टिके मोहकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। महाबन्धके इस कथनसे पंचसंग्रहकी मूलगाथा-द्वारा प्रतिपादित अर्थका ही समर्थन होता है। आ० अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रहसे भी ऊपर किये गये अर्थकी पुष्टि होती है । यथा उत्कृष्टो जायते बन्धः पट सु मिश्रं विनाऽऽयुपः। प्रदेशाख्यो गुणस्थाननवके मोहकर्मणः ॥ (सं० पञ्चसं० ४, २५१) संस्कृत टीकाकार सुमतिकीर्त्तिके सामने अमितगतिके सं० पञ्चसंग्रहके होते हुए और अनेक स्थानोंपर उसके वीसों उद्धरण देते हुए भी इस स्थलपर उन्होंने उसका अनुसरण न करके गो० कर्मकाण्डकी टीकाका अनुसरण क्यों किया, यह बात विचारणीय ही है। उक्त गाथा श्वे० शतकप्रकरणमें भी पाई जाती है और वहाँ उसका गाथाङ्क ६३ है। परन्तु वहाँपर 'छञ्च' के स्थानपर 'पंच' और 'व' के स्थानपर 'सत्त' पाठ पाया जाता अर्थ करते हुए चूणिकारने उक्त दोनों पाठ-भेदोंकी सूचना की है । यथा 'आउक्कस्स पएसस्स पंच त्ति' मिच्छद्दिहि असंजतादि जाव अप्पमत्तसंजओ एतेसु पंचसु वि आउगस्स उक्कोसो पदेसबंधो लब्भइ । कहं ? सम्वत्थ रक्कोसो जोगो लब्भइ त्ति काउं । अने पढंति-'आउक्कोसस्स पदेसस्स छत्ति' । xxx'मोहस्स सत्त ठाणाणि' त्ति सासण-सम्मामिच्छद्दिठिवज्जा मोहणिजबंधका सत्तबिहबंधकाले सव्वेसिं उक्कोसपदेसबंधं बंधंति । कहं ? भन्नइ-सव्वेसु वि उक्कोसो जोगो लब्भति त्ति । अन्ने पढंति-'मोहस्स णव उ ठाणाणि' त्ति सासणसम्मामिच्छेहिं सह । (शतकप्रकरण, गा०६३ चू०४६) ___ उक्त पाठ-भेदोंके रहते हुए भी चूर्णिमें किये गये अर्थसे न पंचसंग्रहकी संस्कृतटीकाके अर्थका समर्थन होता है और न गो० कर्मकाण्डकी संस्कृत टीका-द्वारा किये गये अर्थका समर्थन होता है। अब मूल प्रतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैंमूलगा० ६३] सुहुमणिगोयअपञ्जत्तयस्स पढमे जहण्णगे जोगे। ___ सत्तण्हं पि जहण्णो आउगबंधे वि आउस्स ॥५०३॥ अथ मूलप्रकृतीनां जघन्यप्रदेशबन्धकं स्वामित्वं कथयति--[ 'सुहुमणिगोद' इत्यादि । ] सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकः स्वभवप्रथमसमये जघन्ययोगेनायुर्विना सप्तमूलप्रकृतीनां जघन्यं प्रदेशबन्धं करोति । आयुर्वन्धसमये वा आयुषो जघन्यप्रदेशबन्धं च विदधाति स एव जीवः ॥५०३॥ १. शतक. १४ । गो० क. २१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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