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________________ शतक २५३ जैसा कि आगे गाथा नं०४२७ तथा गो० कर्मकाण्डमें भी कहा है-"तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्मो समजेइ॥गा० १३६ । । ___ इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध समाप्त हुआ। अब मूल प्रकृतियोंके जघन्यादिबन्ध-सम्बन्धी सादि आदि भेदोंकी प्ररूपणा करते हैंमूलगा०५२] 'मूलट्ठिदिअजहणणो सत्तण्हं बंधचदुवियप्पो य । सेसतिए दुवियप्पो आउचउक्के य दुवियप्पो ॥४२०॥ इदि मूलपयडीसु । एत्तो उत्तरासुअथाजधन्यादीनां सम्भवत्साद्यादिभेदानाह--[ 'मूलटिदिअजहण्णो' इत्यादि । ] आयुर्वजितसप्तविधमूलप्रकृतीनां अजघन्यस्थितिबन्धः साधनादि-ध्रवाश्र्वभेदेन चतुर्विधो भवति ४। शेषजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्ट भवतः २। आयुकमचतुष्के अजघन्यजघन्यानुत्कृष्टोत्कृष्टपु चतुर्विधेषु द्वौ विकल्पी साद्यध्रुवौ भवतः २ । इति मूलप्रकृतिषु जघन्यादिषु साद्यादयः ॥४२०॥ आयुर्वर्जितसप्तमूलप्रकृतीनां साधादियन्त्रम्प्रकृति ७ जघन्य सादि ० ० अध्रुव ३ प्रकृति ७. अजषन्य . सादि अनादि ध्रुव अध्रव ४ प्रकृति ७ उत्कृष्ठ सादि अध्रुव ३ प्रकृति ७ अनुत्कृष्ट सादि अध्रुव ३ आयुषः साधादियन्त्रम्जघन्य १ . सादि अध्रुव अजघन्य २ सादि अनुत्कृष्ट ३ सादि अध्रुव उत्कृष्ट ४ सादि अध्रुव आयुकर्मको छोड़कर शेष सात मूलप्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव; इन चारों ही प्रकारोंका होता है। उक्त सातों कर्मों के शेषत्रिक अर्थात् उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध सादि और अध्रुव ऐसे दो प्रकारके होते हैं । आयुकर्मके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य; ये चारों ही प्रकारके स्थितिबन्ध भी सादि और अध्रुव ये दो प्रकारके होते हैं ।।४२०॥ विशेषार्थ--जिससे अन्य और कोई छोटा स्थितिबन्ध न हो, ऐसे सबसे छोटे स्थितिबन्धको जघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं। इसको छोडकर आगे एक समय अधिकसे लगाकर ऊपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तकके जितने भी शेष स्थितिबन्ध है, उन सबको अजघन्य स्थितिबन्ध कहते हैं । जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तकके जितने भी स्थितिविकल्प हैं, वे सर्व जघन्य और अजघन्य इन दोनों स्थितिबन्धोंमें प्रविष्ट हो जाते है। जिससे अन्य अधिक स्थितिवाला और कोई स्थितिबन्ध न हो, ऐसे सर्वोत्कृष्ट स्थितिबन्धको उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहते हैं । इसको छोड़कर एक समय कमसे लगाकर जघन्य स्थितिबन्ध तकके जितने भी शेष स्थितिविकल्प हैं, उन सबको अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहते हैं। उत्कृष्टसे लगाकर जघन्य स्थितिबन्ध तकके जितने भी स्थितिविकल्प हैं, वे सर्व उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट, इन दोनों ही स्थितिबन्धोंके अन्तर्गत आ जाते हैं इस अर्थपदके अनुसार आयुके सिवाय शेष सात कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध सादि आदि चारों प्रकारका होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मोहनीयको छोडकर शेष कोका जघन्य स्थितिबन्ध अध्रुव 1. सं० पञ्चसं० ४, २३५ । १. शतक० ५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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