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________________ सप्ततिका ४५७ मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणगुणस्थान तक मोहकर्मकी उदयप्रकृतियाँ क्रमशः छत्तीस; तीन वार बत्तीस, साठ, बावन, चबालीस, चालीस और बीस होती हैं ॥३४४॥ एवं मोहे पुवुत्तदसगादिउदयाणं पयडीओ मिच्छादिसु : २।३२।३२१६०१५२।४४१४४ । अपुव्वे २० अणियट्टिम्मि २।१ सुहुमे । इत्थं मोहे पूर्वोक्तदशदाद्युदयानां प्रकृतयो मिथ्यादृष्टयादिषु मिथ्यात्वे ३६।३२ सासादने ३२ निश्रे ३२ अविरते ६० देशे ५२ प्रमत्त ४४ अप्रमत्त ४४ अपूर्वकरणे २० अनिवृत्तिसवेदे २ अवेदे । सूक्ष्मे ।। मोहकर्मकी पूर्वोक्त दशप्रकृतिक आदि उदयस्थानोंकी प्रकृतियाँ मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें इस प्रकार जानना चाहिए __ मि० सा० मि० अवि० देश० प्रम० अप्र० अपू० अनि० सूक्ष्म० ३६॥३२ ३२ ३२ ६० ५२ ४४ ४४ २० २ १ अब भाष्यगाथाकार इसी अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए पहले मिथ्यादृष्टिके पदवृन्दभंगोंका निरूपण करते हैं दस णव अड सत्तदया मिच्छादिहिस्स होंति णायव्वा । सग-सग-उदएहिं गया भंगवियप्पा वि होति छत्तीसा ॥३४॥ १०1३1८७ मिथ्यादृष्टयादिषु दशकाद्युदयानां प्रकृतीदर्शयति-[ 'दस णव अड सत्तुदया' इत्यादि । ] अनन्तानुबन्ध्युदयसहित मिथ्यादृष्टेर्दश १० नवा इष्ट ८ सप्तो ७ दया भवन्ति ज्ञातव्याः। स्वक-स्वकोदयं गता भङ्गा विकल्पाः षट् त्रिंशद् भवन्ति ३६ ॥३४५॥ मिथ्यादृष्टिके दश, नौ, आठ और सातप्रकृतिक उदयस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। इनमेंसे अनन्तानुबन्धीके उदयसहित मिश्यादृष्टिके अपने-अपने उदयस्थानगत प्रकृतियोंके भङ्गविकल्प छत्तीस होते हैं ॥३४॥ उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१०, ६, ६, ८=३६ । अणुदय सव्वे भंगा बत्तीसा चेव होंति णायव्वा । उभओ वि मेलिदेसु य मिच्छे अछुत्तरा सट्ठी ॥३४६॥ उदयपयडीओ ३६।३२। उभए वि ६८ अनन्तानु बन्ध्यनुदयगतमिथ्यादृष्टेनवाष्ट सप्तोदया भवन्ति । । ८८ एषां प्रकृतयः । उभयेषु मिलितेषु मिथ्यादृष्टौ अष्टपष्टिः ६८ उदयविकल्पा भवन्ति ॥३४६॥ उदयप्रकृतयः ३६।३२ उभये ६८ । अनन्तानुबन्धीके उदयसे रहित मिथ्यादृष्टिके उदयस्थानगत प्रकृतियोंके सर्वभंगविकल्प बत्तीस होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। दोनों उदय-भंगोंको मिला देनेपर मिथ्या दृष्टिके अड़सठ भंग हो जाते हैं ॥३४६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-६, ८, ८, ७ =३२१ ३६ +३२=६८ । पुणरवि दसजोगहदा अट्टासट्ठी हवंति णायव्वा । मिच्छादिहस्सेदे छस्सयमसीदि य भंगा दु ॥३४७॥ ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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