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________________ शतक अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोंको गिनाते हैं नरका, देवायु और नरकद्विक ये उपर्युक्त चार प्रकृतियाँ जानना चाहिए। दो प्रकृतियोंसे आहारकद्विकका, तथा पाँच प्रकृतियोंसे देवचतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिका ग्रहण करना चाहिए ||५१२|| . अब चारों बन्धोंके कारणोंका निरूपण करते हैं [ मूलगा ०६८ ] 'जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागं कसायदो कुणइ । काल-भत्र खेत्तपेही उदओ सविवाग- अविवागो' ५१३ || उक्तचतुर्विधबन्धानां कारणान्याह - [ 'जोगा पयडिपएसा' इत्यादि । ] योगात्मनोवचनकाययोगास्प्रकृतिबन्ध-प्रदेशबन्धौ भवतः, जीवाः कुर्वते । कषायतोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यान संज्वल नक्रोधमानमायालोभात् नवनोकषायाच्च स्थितिबन्धानुभागबन्धी भवतः, जीवाः कुर्वते । कर्मणामुदयो विपाको भवति । द्रव्य-क्षेत्र काल-भव-भावलक्षण- कारणभेदोत्पादितनानात्वः त्रिपाकः विविधोऽनुभवो ज्ञातव्यः । कालं भवं क्षेत्रं द्रव्यमपेक्ष्य कालं चतुर्थादिकालं भवं नर-नारकादिभवं क्षेत्रं भरतैरावतविदेहादिक्षेत्रं द्रव्यं जीव- पुद्गलसंहननादिद्रव्यं प्राप्य कर्मणामुदयोऽनुभागो भवति । स कथम्भूतः ? द्विविधः - सविपाकोऽविपाकश्च । चातुर्गतिकानां जीवानां शुभाशुभकर्मणां सुख-दुःखादिरूपोऽनुभवः अनुभवनं स विपाकोदयः । यच्च कर्मविपाककालमप्राप्तं उदयमनागतं उपक्रमक्रियाविशेषबलादुदयमानीय आस्वाद्यते स भविपाकोदयः ॥५१३॥ तथा चोक्तं च कालं क्षेत्रं भवं द्रव्यमुदयः प्राप्य कर्मणाम् । जायमानो मतो द्वेधा विपाकेतरभेदतः ॥४८॥ २८६ जीव प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धको योगसे, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धको कषायसे करता है । काल, भव और क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मोंका उदय होता है । वह दो प्रकारका है - सविपाक उदय और अविपाक - उदय ॥५१३॥ विशेषार्थ – पूर्वार्ध में प्रकृतिबन्ध और प्रदेशचन्धका कारण योग, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कषाय बतलाया गया है। उत्तरार्धके द्वारा उदयके निमित्त और उसके भेद बतलाये गये हैं । जिसका अभिप्राय यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावका आश्रय पाकरके कर्म अपना फल देते हैं । यहाँ इतना विशेष जानना आवश्यक है कि ज्ञानावरणको पाँच, दर्शनावरणकी चार, अन्तरायकी पाँच, मिथ्यात्व, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण ये ३७ ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ कहलाती हैं, सो इनका तो उदय सर्व काल सर्व संसारी जीवोंके रहता है । इन्हें छोड़कर शेष जो ६५ उदय-प्रकृतियाँ हैं, वे क्षेत्र, कालादिका निमित्त पाकर उदय देती हैं । जैसे क्षेत्रविपाकी प्रकृतियाँ क्षेत्रका निमित्त पाकर फल देती हैं । भवविपाकी प्रकृतियाँ भवका निमित्त पाकर फल देती हैं। इसी प्रकार जो प्रकृतियाँ एकान्ततः नरकगति या देवगति में ही उदय आनेके योग्य हैं, वे उस उस भवका निमित्त पाकर उदयमें आती हैं । निद्रा आदि प्रकृतियाँ कालका निमित्त पाकर उदयमें आती हैं । इसी प्रकार शेष सर्व प्रकृतियाँ जानना चाहिए । वह कर्मोदय सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकारका होता है । अपने समय के आने पर जो कर्म स्वतः स्वभावसे फल देते हैं, उसे सविपा 1. सं० पञ्चसं० ४, ३६५ । १. शतक०. ६६ । गो० क० २५७ पूर्वार्ध- समता । *सं० पञ्चसं० ४, ३६८ । ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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