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प्रस्तावना
हुए यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि इस प्रतिके लेखकको भी प्रस्तुत टीका प्रारम्भसे नहीं प्राप्त हुई है, प्रत्युत मूल पञ्चसंग्रह और उसकी संस्कृत टीकाकी खण्डित प्रतियाँ ही प्राप्त हई हैं और लेखकने उसकी पूर्वापर छान-बीन किये विना ही प्रतिलिपि करते हुए एक ही सिलसिलेसे पत्रोंपर अङ्क-संख्या डाल दी है।
पत्र ५४के जिस स्थलसे टीकाका 'प्रत्येकशरीरं' अंश प्रारम्भ होता है, वह यह सूचित करता है, कि इस प्रतिके लेखकके सामने प्रस्तुत टीकाका प्रारम्भिक अंश नहीं रहा है। गहरी छान-बीनके बाद ज्ञात हुआ कि टीकाका जो अंश उपलब्ध हो रहा है, वह पञ्चसंग्रहके तीसरे कर्मस्तवको ४० वीं गाथाके चतुर्थ चरणका टीकांश है । इस प्रकार यह निष्कर्ष निकला कि पञ्चसंग्रहके समग्र प्रथम, द्वितीय प्रकरणोंकी, तथा तृतीय प्रकरणके प्रारम्भसे लेकर ४० गाथाओंकी टीका अनुपलब्ध है। फिर भी यह उचित समझा गया कि जहाँसे भी टीका उपलब्ध है, वहाँसे ही मुद्रित कर देना चाहिए। अन्यथा कालान्तरमें यह अवशिष्ट अंश भी नष्ट हो जावेगा।
उपलब्ध प्रतिका आकार ८१४४१ इञ्च है । पत्र-संख्या २०१ है। प्रत्येक पत्रमें पंक्तिसं० पत्र ५५ तक १६ और आगे १५ है। प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ५०-५२ है। यदि प्रारम्भकी अप्राप्त टीकाके पत्रोंकी संख्या ५४ ही मान ली जाय तो प्रस्तुत टीका १० हजार श्लोक प्रमाण सिद्ध होती है। इसमेंसे यदि मूल ग्रन्थको गाथाओंका लगभग दो हजार प्रमाण कम कर दिया जावे, तो टीका परिमाण आठ हजार श्लोकप्रमाण ठहरता है। प्रस्तुत प्रतिके अन्तमें निम्न पुष्पिका पाई जाती है
"सं० १७११ वर्षे शाके १५७६ प्रवर्तमाने आश्विन सुदि ९ सोमवासरे श्रीपणानगरे चतुर्मासि कृता। श्रेयोऽर्थ कल्याणमस्तु ।"
प्रतिके इस लेखनकालसे ज्ञात होता है कि यह टीका-प्रति टीका-रचनाके ठीक ९१ वर्षके बाद लिखी गई है । यद्यपि लेखक या लिखानेवालेका इसमें कोई उल्लेख नहीं है तथापि 'चतुर्मासि' कृता पदसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि किसी अच्छे ज्ञानी साधु, भट्टारक या ब्रह्मचारीने पटना नगर में किये हुए चौमासे में इसे लिखा है। इस प्रतिके अक्षर अत्यन्त सुन्दर हैं और प्रायः सभी संदृष्टियोंकी रेखाएँ लाल स्याहीसे खींची गई हैं।
इस टीका-प्रतिको देखते हुए ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस प्रतिके लिखे जानेके पश्चात् किसी विद्वान्ने उसे पढ़ा है और संशोधन भी किया है जो कि हासियेपर भिन्न स्याही और भिन्न कलमसे अंकित है।
प्राकृतवृत्ति-परिचय संस्कृत-टीकाकी प्रशस्तिके पश्चात् परिशिष्ट रूपमें जो प्राकृत वृत्ति-सहित मूल पंचसंग्रह मुद्रित ( पृ० ५४७ई० ) किया गया है, उसकी दो प्रतियाँ हमें उपलब्ध हुई-एक श्री कस्तूरचन्द्रजी काशलीवालकी कृपासे जयपुर शास्त्र-भण्डारकी और दूसरी पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी कृपासे-जिसपर कि ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन बम्बईकी मुहर लगी हुई है। इन दोनोंमें पहली बहुत प्राचीन है और दूसरी एक दम अर्वाचीन । वस्तुतः इसे नवीन ही कहना चाहिए, क्योंकि यह १५-२० वर्ष पूर्वकी ही लिखी हुई है और बहुत ही अशद्ध है। इस प्रतिके लेखकने जिस प्राचीन प्रति परसे उसकी प्रतिलिपि की, वह सम्भवतः प्राचीन लिपिको ठीक पढ़ नहीं सका और इसीलिए उसकी प्रत्येक पंक्ति अशुद्धियोंसे भरी हुई है।
जयपुर-शास्त्र-भण्डारकी जो प्रति प्राप्त हुई, उसके आधारपर ही प्राकृत-वृत्तिकी प्रेस कापी की गई है। प्रतिलिपि करते हुए हमें यह अनुभव हुआ कि जहाँ एक ओर वह प्रति उपरिनिर्दिष्ट समस्त प्रतियोंमें सर्वाधिक प्राचीन है, वहाँपर उसकी लिखावट भी अति दुरूह है। इसके लिखने में-खासकर नहीं पढ़े जा सकनेवाले सन्दिग्ध पाठोंके शुद्ध रूपकी कल्पना करने में हमें पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा है, तथापि कितने ही स्थल संदिग्ध ही रह गये और उनके स्थानपर या तो [ ] इस प्रकारके खड़े कोष्ठकके भीतर कल्पित पाठ लिखा गया, अथवा ( ? ) ऐसे गोल कोष्ठके भीतर प्रश्नवाचक चिह्न देकर छोड़ देना पड़ा। इस प्रतिका आकार १२४४३ इंच है और पत्र संख्या ९८ है । वेष्टन नं० १००४ है ।
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