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________________ शतक १८३ विना शेषौ साद्यध्रुवौ भवतः, आयुषः सादिबन्धाऽध्रुवबन्धौ भवतः । कुतः ? एकवारादिना बन्धेन सादित्वात् अन्तर्मुहूर्तावसानेन चाध्रुवत्वात् ॥२३५॥ .. ___ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय; इन छह कर्मोंका सादिबन्ध भी होता है, अनादिबन्ध भी होताहै, ध्रुवबन्ध भी होता है और अध्रुवबन्ध भी होता है, अर्थात् चारों प्रकारका बन्ध होता है। तीसरे वेदनीय कर्मका सादिबन्धको छोड़कर शेष तीन प्रकारका बन्ध होता है । आयु कर्मका अनादिबन्ध और ध्रुवबन्धके सिवाय शेष दो प्रकारका बन्ध होता है ।।२३५॥ अब उत्तरप्रकृतियोंके सादिवन्ध आदिका निरूपण करते हैं[मूलगा० ३८] उत्तरपयडीसु तहा धुपियाणं बंधचउवियप्पो दु । सादिय अऽवियाओ सेसा परियत्तमाणीओ ॥२३६॥ अधोत्तरप्रकृतिपु सादिबन्धादिकाः कथ्यन्ते-तथा मूलप्रकृतिप्रकारेण उत्तरप्रकृतिषु मध्ये सप्तचत्वारिंशद्-ध्रुवप्रकृतीनां ४७ सादिबन्धादिचतुर्विकल्पश्चतुर्धा भवति । सादिबन्धाऽध्रुवबन्धा शेषा एकादशा ११ द्विषष्टिः परिवर्तिकाश्च प्रकृतयः ६२ । ॥२३६॥ उत्तरप्रकृतियों में जो सेंतालीस ध्रवबन्धी प्रकृतियाँ हैं, उनका चारों प्रकारका बन्ध होता है । तथा शेष बची जो तेहत्तर परिवर्तमान प्रकृतियाँ हैं, उनका सादिबन्ध और अध्रुवबन्ध होता है ॥२३६॥ अब संतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंको गिनाते हैं आवरण विग्घ सम्वे कसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचहुँ । भयणिंदागुरुतेयाकम्मुवघायं धुवाउ सगदालं* ॥२३७॥ का ध्रुवाः प्रकृतयः काः परिवर्तिका इतिचेदाऽऽह-ज्ञानावरण-दर्शनावरणान्तरायैकोनविंशतिः ११, सर्वे पोडश कषायाः १६, मिथ्यात्वं १ निर्माणं १ वर्णचतुकं ४ भय-निन्दाद्वयं २ अगुरुलघुकं १ तैजस कार्मणे द्वे २ उपघातश्चेति १ सप्तचत्वारिंशद्-ध्रुवाणां प्रकृतीनां ४७ साद्यऽनादिधवाऽध्रुवबन्धश्चतुर्विधो भवति ॥२३॥ पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पांच अन्तराय, सभी अर्थात् सोलह कषाय, मिथ्यात्व, निर्माण, वर्णादि चार, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और उपघात; ये सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं, अर्थात् बन्ध-व्युच्छित्तिके पूर्व इनका निरन्तर बन्ध होता रहता है ॥२३७॥ निष्प्रतिपक्ष और सप्रतिपक्षके भेदसे परिवर्तमान प्रकृतियोंके दो भेद हैं। उनमेंसे पहले निष्प्रतिपक्ष अध्रुवबन्धी प्रकृतियोंको गिनाते हैं अपरघादुस्सासाणं आयावुजोवमाउ नत्तारि । तित्थयराहारदुयं एकारस होंति सेसाओ ॥२३८।। इदि णिप्पडिवक्खा अधुवा ११ 1. सं० पञ्चसं० ४, १०६ । १.४, १०७-१०८। 3. ४,१०६-११० । १. शतक. ४१। ** इसके स्थान पर मूल प्रतिमें निम्न दो गाथाएँ पाई जाती हैंणाणंतरायदसयं दसण णव मिच्छ सोलस कसाया । भयकम्मदुगुंछा वि य तेजाकम्मं च वण्णचदु ॥१॥ अगुरुगलहुगुवघादा णिमिणं च तहा भवंति सगदालं । बंधो य चदुवियप्पो धुवपगडीणं पगिदिबंधो ॥२॥ इदि धुवाओ ४७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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