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________________ पञ्चसंग्रह २-दि० श्वे. मल शतकोंमें जहाँ कहीं पाठ-भेद है वह पाठ-भेद प्रायः सर्वत्र सभाप्य शतकसे समता रखता है, मूल शतकसे नहीं। ३-श्वे० शतकमें 'बंधट्ठाणा चउरो' इत्यादि गाथा गाथांक २६ के बाद मुद्रित तो है पर उसपर अंक-संख्या नहीं दी, जिससे ज्ञात होता है कि वह मूल-बाह्य करार दी गयी है। दि० शतकमें यह गाथा नहीं पाई जाती। ४-दि० शतककी गाथा 'अविह सत्त छबंधगा'का उत्तरार्ध श्वे० शतककी गाथा-संख्या २७से मिलता है । किन्तु सभाप्य शतकमें उसके स्थानपर नया ही पाठ है । ५-श्वे० शतकमें पाई जानेवाली गाथा-संख्या ३८ और ३९ का सभाष्य शतकमें पता भी नहीं है। ६-श्वे० शतको संख्या ५२, ५३ पर जो गाथाएँ पाई जाती हैं उनके स्थानपर दिगम्बर शतक और सभाग्य शतको तदर्थ-सूचक अन्य ही गाथाएँ पाई जाती है। ७-श्वे० शतकमें गाथांक ५३ के बाद जो 'बारस अंतमुहुत्ता' आदि गाथा दी है और जिसपर चूणि . भी मुद्रित है; आश्चर्य है कि उसे मूल गाथामें क्यों नहीं गिना गया? दि० शतकमें वह मूलरूपसे ही दी है और सभाष्य शतकमें भी। ८-श्वे० शतकमें संख्या ७२, ७३ पर पाई जानेवाली दोनों गाथाएँ दि० शतकसे समता रखती हैं, पर सभाष्य दि० शतकसे नहीं। वहाँ दोनों गाथाएँ अर्थ-साम्य रखते हुए भी पाठ-भेदसे युक्त हैं। यह भी एक विचारणीय बात है । ( देखो गाथा ७०, ७१ मूल ) ९-श्वे० शतककी गाथा संख्या ८० दिगम्बर शतककी इसी गाथासे समता रखती है पर सभाप्य शतकमें २० के स्थानपर मिश्रको मिलाकर सर्वघातिया २१ प्रकृतियाँ बतलाई गयी है। यह पाठभेद भी उल्लेखनीय है कि प्राकृतवृत्तिमें मिश्रको क्यों नहीं गिनाया गया। १०-श्वे० शतकमें गाथा ८१ में देशघाती प्रकृतियाँ २५ ही बतलाई है, यही बात दि० मूल शतकमें भी है। पर सभाष्य शतको अन्तर स्पष्ट है। वहाँ पर २६ देशघातियाँ प्रकृतियाँ वतलाई गयी हैं। यह भी अन्तर महत्त्वपूर्ण है। दिगम्बर और श्वेताम्बर सप्ततिकागत पाठभेद १-गाथांक ७ दिगम्बर श्वे दोनों सप्ततिकाओंमें समान है, पर सभाष्य सप्ततिकामें उसके स्थानपर 'णव छवक' आदि नवीन ही गाथा पायी जाती है। २-गाथांक ८के विषयमें दोनों समान हैं। किन्तु सभाष्य सप्ततिकामें उसके स्थानपर नवीन गाथा है। ३-गा० ९ की दिगम्बर श्वे० मल सप्ततिकासे सभाष्य सप्ततिकामें अर्द्ध-समता और अर्द्धविषमता है। ४-गा० १० ( गोदेसु सत्त भंगा ) सभाष्य सप्ततिका और दि० मूल सप्ततिकामें है । पर श्वेताम्बर सप्ततिकामें वह नहीं पायी जाती है । ५-गा० १५ दि० श्वे० सप्ततिकामें समान है। पर सभाष्य सप्ततिकामें भिन्न है। ६-श्वे० सप्ततिकाके हिन्दी अनुवाद एवं सम्पादक 'दस बाबीसे' इत्यादि गाथा १५ को तथा 'चत्तारि' आदि णव बंधएसु इत्यादि गा० १६ को मूल गाथा स्वीकार करते हुए भी उन्हें सभाष्य सप्ततिका मूल गाथा माननेसे क्यों इनकार करते हैं ? यह विचारणीय है। ७-गाथा १७ का उत्तरार्ध दि० श्वे० गुप्ततिकामें समान है । पर सभाप्य सप्ततिकामें भिन्न है। ८-'एक्कं च दोणि व तिणि' इत्यादि गाथांक १८ न खे० राप्ततिकामें है और न सभाप्य राप्ततिकामें। इसके स्थानपर श्वे० सप्ततिकामें 'एतो च उबंधादि' इत्यादि गाथा पाई जाती है। पर राभाष्य राप्ततिकामें तत्स्थानीय कोई भी गाथा नहीं पायी जाती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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