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पञ्चसंग्रह
पाये जाने में कोई विरोध नहीं है । कुछ अपवादोंको छोड़कर सभी जीवांके दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है । इनमें पहला अपवाद अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंका है, क्योंकि वे दोनों उचगोत्रकी उद्वेलना भी करते हैं । अतः जिन्होंने उच्चगोत्रकी उद्वेलना कर दी है उनके, या वे जीव मरकर जब अन्य एकेन्द्रियादिकोंमें उत्पन्न होते हैं, तब उनके भी उत्पन्न होनेके प्रारम्भिक अन्तर्मुहूर्त तक केवल एक नीचगोत्रका ही सत्त्व पाया जाता है । इसी प्रकार अयोगिकेवली के उपान्त्य समयमें नोचगोत्रका क्षय होता है, तब उनके भी अन्तिम समयमें केवल एक उच्चगोत्रका सत्त्व पाया जाता है । इस कथनका सार यह है कि गोत्रकर्मका बन्धस्थान भी एक प्रकृतिक होता है और उदयस्थान भी एक प्रकृतिक होता है । किन्तु सत्त्वस्थान कहीं एक प्रकृतिक होता है और कहीं दो प्रकृतिक होता है । तदनुसार गोत्रकर्मके सात भंग ये हैं- १ नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और नोचगोत्रका सत्त्व; २ नीचगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व; ३ नीचगोत्रका बन्ध, उच्चगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व; ४ उच्चगोत्रका बन्ध, नीचगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्व; ५ उच्चगोत्रका बन्ध, उच्चगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व, ६ बन्ध किसी गोत्रका नहीं, उच्चगोत्रका उदय और दोनों गोत्रोंका सत्त्व, तथा ७ बन्ध किसी गोत्रका नहीं, उच्चगोत्रका उदय और उच्चगोत्रका सत्त्व । इनमें से पहला भंग नीचगोत्रकी उद्वेलना करनेवाले अग्निकायिक- वायुकायिक जीवोंके, और ये जीव मर कर जिन एकेन्द्रियादिकमें उत्पन्न होते हैं, उनके अन्तर्मुहूर्त कालतक पाया जाता है। दूसरा और तीसरा भंग मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थानवर्ती जीवोंके पाया जाता है क्योंकि नीच गोत्रका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही पाया जाता है । चौथा भंग आदिके पाँच गुणस्थानवर्ती जीवोंके सम्भव है; क्योंकि नीचगोत्रका उदय पाँचवें गुणस्थान तक ही होता है पाँचवाँ भंग आदिके दश गुणस्थानवर्ती जीवोंके सम्भव है; क्योंकि उच्चगोत्रका बन्ध दशवें गुणस्थान तक ही होता है । छठा भंग ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समय तक पाया जाता है। सातवाँ भंग चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समय में पाया जाता है । इस प्रकार गोत्रकर्मके सात भंगों का विवरण किया ।
पाया
अब वेदनीय कर्मके आठ भंगोंका स्पष्टीकरण करते है- वेदनीय कर्मके दो भेद हैंसातावेदनीय और असातावेदनीय । इन दोनोंमेंसे एक जीवके एक समय में किसी एकका बन्ध और किसी एकका उदय होता है; क्योंकि, ये दोनों परस्पर विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं । परन्तु किसी एक प्रकृति के सत्तासे विच्छिन्न होने तक सत्त्व दोनोंका पाया जाता है । जब किसी एककी सत्त्वविच्छित्ति हो जाती है, तब किसी एक ही प्रकृतिका सत्त्व जाता है । इस कथनका सार यह है कि वेदनीय कर्मका बन्धस्थान भी एक प्रकृतिक होता है और उदयस्थान भी एक प्रकृतिक होता है । किन्तु सत्त्वस्थान दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक; इस प्रकार दो होते हैं । तदनुसार वेदनीयकर्मके आठ भंग ये हैं-१ असाताका बन्ध, असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व; २ असाताका बन्ध, साताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ३ साताका बन्ध, साताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ४ साताका बन्ध, असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व | इस प्रकार वेदनीय कर्मका बन्ध होने तक उपर्युक्त चार भंग होते हैं । तथा बन्धके अभावमें; ५ असाताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ६ साताका उदय और दोनोंका सत्त्व; ७ असाताका उदद्य और असाता सत्त्व; तथा = साताका उदय और साताका सत्त्व, ये चार भंग होते हैं। इनमेंसे प्रारम्भके दो भंग पहले गुणस्थानसे लेकर छठे गुणस्थान तक होते हैं; क्योंकि, वहाँ तक ही असातावेदनीयका बन्ध होता है । तीसरा और चौथा भंग पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है; क्योंकि सातावेदनीयका बन्ध यहाँ तक ही होता है । पाँचवाँ और छठवाँ भंग चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समय तक पाया जाता है; क्योंकि यहीं
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