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________________ शतक १८७ उपशमश्रेण्यावरोहको मुनिरपूर्वकरणद्वितीयभागे चतुःप्रकृतिकं बध्नाति । तत्प्रथमे भागे अवतीर्णः पटप्रकृतिकं बध्नाति ।। प्रमत्तो देशसंयतो मिश्रो वा पट् प्रकृतिकं बनन् मिथ्यादृष्टिभूत्वा वा प्रथमोप ६३ शमसम्यग्दृष्टिः सास्वादनो भूत्वा नवप्रकृतिकं बध्नाति . जाकारी द्वौ भवतः: । तद्विपरीतौ अल्पतरौ । प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखो मिथ्यादृष्टिरनिवृत्तिकरणलब्धिचरमसमये नवप्रकृतिकं बनननन्तरसमयेऽसंयतो देशसंयतः प्रमत्तो वा भूत्वा षट्-प्रकृतिकं बनातीति । तथोपशमकः आपको वाऽपूर्वकरणः प्रथमभागचरमसमये षट्-प्रकृतिकं बध्नन् द्वितीयभागप्रथमसमये चतुःप्रकृतिकं बनातीत्यल्पतरौ द्वौ भवतः ।। नवादयोऽवस्थितास्त्रयो ज्ञेयाः । तथाहि-मिथ्यादृष्टिः सासादनो वा नवप्रकृतिकं मिश्राद्यपूर्वकरणप्रथमभागान्तः पट् प्रकृतिकं अपूर्वकरणद्वितीयभागादि-सूचमसाम्परायान्तः चतुःप्रकृतिकं च बनन् , अनन्तरसमये तदेव बनातीत्यवस्थितबन्धास्त्रयः । ६४ ॥२४४।। ६ उपशमश्रेणीसे उतरनेवाला जीव अपूर्वकरणके द्वितीय भागमें चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध करके प्रथम भागमें उतरकर छह-प्रकृतिक स्थानका बन्ध करने लगता है, यह प्रथम भुजाकार हुआ। पुनः और भी नीचे उतर कर मिथ्यादृष्टि होकर, अथवा प्रथमोपशमसम्यक्त्वी सासादनसम्यग्दृष्टि होकर नौ प्रकृतिस्थानका बन्ध करने लगता है, यह दूसरा भुजाकार हुआ। इस प्रकार दर्शनावरणके दो भुजाकार बन्ध होते हैं। इससे विपरीत क्रममें अर्थात् क्रमशः ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ़ने पर दो अल्पतर बन्ध होते हैं-नौ प्रकृतिक स्थानको बाँधकर छह प्रकृतिक स्थानके बाँधनेपर पहला अल्पतर बन्ध होता है। तथा छहको बाँधकर चारके बाँधने पर दूसरा अल्पतर बन्ध होता है । अवस्थित बन्ध तीन होते हैं-नौका बन्ध कर पुनः नौके बाँधने पर पहला, छहका बन्धकर पुनः छहके बाँधने पर दूसरा और चारका बन्धकर पुनः चारके बाँधने पर तीसरा ॥२४४॥ इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। अब दर्शनावरण कर्मके कितने प्रकृतिक स्थानका कहाँ तक बन्ध होता है, इस बातका निरूपण करते हैं- . 1मिच्छा सासण णवयं मिस्साइ-अपुव्यपढमभायंता । थीणतिगूणं णिदादुगण बंधति सुहुमंता ॥२४॥ मिथ्यात्व-सास्वादनस्थाः दर्शनावरणस्य नवप्रकृतिकं बन्धन्ति । मिश्राद्यपूर्वकरणगुणस्थानप्रथमभागपर्यन्तस्थाः जीवाः स्त्यानगृद्धित्रिकोनषट प्रकृतिकं बन्धन्ति । अपूर्वकरणद्वितीयभागात् सूक्ष्मसाम्परायान्ता जीवा निद्रा-प्रचलोनचतुःप्रकृतिकं ४ बध्नन्ति ॥२४५॥ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं । मिश्रगुणस्थानको आदि लेकर अपूर्वकरणके प्रथम भाग तकके जीव स्त्यानगृद्धित्रिकके विना छह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं । अपूर्वकरणके द्वितीय भागसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तकके जीव निद्राद्विकके विना चार प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं ॥२४५।। 1. सं० पञ्चसं० ४, ११७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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