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________________ १८६ पञ्चसंग्रह लगता है । यह दूसरा अल्पतर बन्धस्थान हुआ। वही जीव ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थानमें चढ़कर एक सातावेदनीय कर्मका बन्ध करने लगता है, तब तीसरा अल्पतर बन्धस्थान होता है । पूर्व समयमें आठों कर्मोका बन्ध कर उत्तर समयमें भी आठों ही कर्मोका बन्ध करना, पूर्व समयमें सात कोका बन्ध कर उत्तर समयमें भी सात ही कर्मोका बन्ध करना, पूर्व समयमें छह कर्मोका बन्ध कर उत्तर समय में भी छह ही कर्मोका बन्ध करना और पूर्व समयमें एक कर्मका बन्ध करके उत्तर समयमें भी एक ही कर्मका बन्ध करना; इस प्रकारसे चार अवस्थित वन्धस्थान होते हैं। अब उत्तर प्रकृतियोंके प्रकृतिस्थान और भुजाकारादि बतलाते हैं[मूलगा० ४०] तिण्णि दस अट्ट हाणाणि दंसणावरण-मोह-णामाणं । एत्थेव य भुजयारा सेसेरोयं हवइ ठाणं ॥२४२॥ अथोत्तरप्रकृतीनां तत्समुत्कीर्तनमाह-दर्शनावरण-मोह-नामकर्मणां बन्धस्थानानि क्रमशः त्रीणि ३ दश १० अष्टौ ८ भवन्ति । तेन भुजाकारबन्धा अप्येष्वेव, नान्येषु । शेषेषु मध्ये ज्ञानावरणेऽन्तराये च पञ्चात्मकं एक बन्धस्थानम् । गोत्राऽऽयुर्वेदीयेष्वेकात्मकं चैकैकमेव बन्धस्थानं भवेदिति कारणम् ॥२४२॥ दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्मके क्रमशः तीन, दश और आठ प्रकृतिबन्धस्थान हैं। इनमें यथासम्भव भुजाकार बन्ध होते हैं । उक्त कर्मों के सिवाय शेष पाँच कर्मों के एक एक ही बन्धस्थान होता है ॥२४२॥ अब दर्शनावरणकर्मके तीन बन्धस्थानोंका निरूपण करते हैं *णव छक चउकं च हि सणावरणस्स होंति ठाणाणि । भुजयारप्पयरा दो अवट्टिया होंति तिण्णव ॥२४३॥ ___बंधट्ठाणाणि--६, ६, ४ । दर्शनावरणस्य त्रीणि स्थानानि कानि चेदाऽऽह-दर्शनावरणस्य बन्धस्थानानि त्रीणि भवन्ति-- नवप्रकृतिकं है। स्त्यानगृद्धित्रयेण विना षट-प्रकृतिकं ६ । पुनः निद्रा-प्रचले विना चतुःप्रकृतिकं ४ चेति त्रीणि । तेषां भुजाकारोऽल्पतरौ द्वौ, अवस्थिसबन्धास्नयो भवन्ति । चशब्दादवक्तव्यबन्ध (?) एव स्युः ॥६४ ॥२४३॥ दर्शनावरण कर्मके तीन बन्धस्थान हैं-नौ प्रकृतिरूप, स्त्यानगृद्वित्रिकके विना छह प्रकृतिरूप और निद्रा-प्रचलाके विना चार प्रकृतिरूप । इनमें दो भुजाकार, दो अल्पतर और तीन अवस्थित बन्ध होते हैं ॥२४३।।.. दर्शनावरणके बन्धस्थान तीन हैं-६, ६, ४ । अब दर्शनावरणके भुजाकार बन्धोंका स्पष्टीकरण करते हैं चउ छकं बंधंतो छण्णव बंधेइ होंति भुजयारा । विवरीया अप्पयरा णवाइ हु अवट्ठिया गेया ॥२४४॥ भुजयारा : अप्पयरा ६ ६ अवडिया : ६४। 1. सं० पञ्चसं० ४, ११४ । 2. ४. ११५ । 3. ४, ११६ । १. शतक. ४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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