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________________ शतक और तियच बाँधते हैं। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरनामकर्म, इन तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि देवमें होता है। तिर्यग्गतिद्विक और मृपाटिकासंहनन, इन तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मिथ्यादृष्टि देव और नारकियोंके होता है ।।४६४-४६५।। [मूलगा०७२]'सेसाणं चउगइया तिव्वाणुभायं करिति पयडीणं । मिच्छाइट्ठी णियमा तिव्वकसाउकडा जीवा ॥४६६॥ ॥६॥ शेषाणां अष्टपष्टः प्रकृतीनां चातुर्गतिका मिथ्यादृष्टयस्तीव्रकपायोत्कृष्टा जीवाः संक्लिष्टास्तीवानुभाग उत्कृष्टानुभागबन्धं कुर्वन्ति बध्नन्ति नियमात् । अप्रशस्तानां भष्टषष्टेः ६८ उत्कृष्टानुभागबन्धान् चातुर्गातिकसंक्लिष्टा कुर्वन्तीत्यर्थः ॥४६६॥ शेष बची प्रकृतियोंके तीव्र अनुभागबन्धको तीव्र कषायसे उत्कट चारों गतिवाले मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे करते हैं ॥४६६।। विशेषार्थ-प्रस्तुत गाथामें उपरि-निर्दिष्ट प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष बची प्रकृतियों के तीव्र अनुभागबन्ध करनेवाले जीवोंका निर्देश किया गया है । यद्यपि गाथामें उन शेष प्रकृतियोंकी संख्याका कोई निर्देश नहीं किया गया है, तथापि अनेक प्रतियोंमें गाथाके पश्चात् शेष पदसे सूचित की गई संख्याके निर्देशार्थ '६४' का अंक दिया हुआ है। किन्तु संस्कृत टीकाकारने 'शेष' प्रकृतीना' कहकर स्पष्ट शब्दाम ६८ प्रकृतियाका निर्देश किया है और संस्कृतपञ्चसंग्रहकारने भी 'प्रकृतीनामष्टषष्टिं' (सं० पञ्चसं०४, २८६) कहकर ६८ प्रकृतियोंको ही कहा है। दिल्ली भण्डारकी मूलप्रतिमें भी इस गाथाके अन्तमें ६८ का अंक दिया हुआ है, जिससे संस्कृत पश्नसंग्रहकार और संस्कृत टीकाकारके द्वारा किये गये अर्थको पुष्टि होती है। अब विचारनेकी बात यह है कि ६४ संख्या ठीक है, अथवा ६८ ! यह प्रश्न संस्कृत पञ्चसंग्रहकारके मनमें भी उठा है और सम्भवतः इसीलिए उन्होंने इसका समाधान भी उक्त श्लोकके आगे दिये गये तीन श्लोकों-द्वारा किया है, जो कि इस प्रकार हैं तिर्यगायुमनुष्यायुरातपोद्योतलक्षणम् । प्रशस्तासु पुर। दत्तं प्रकृतीनां चतुष्टयम् ॥२६॥ तीवानुभागबन्धासु मध्ये यद्यपि तत्त्वतः । सम्भवापेक्षया भूयो मिथ्यादृष्टेः प्रदीयते ॥२६॥ अप्रशस्तं तथाप्येतत्केवलं व्यपनीयते । पडशीतरपनीते दुयशीतिर्जायते पुनः ॥२६२॥ इन श्लोकोंका भाव यह है कि तिर्यगायु, मनुष्यायु, आतप और उद्योत; ये चार प्रकृतियाँ व्यालीस प्रशस्त प्रकृतियोंमें पहले गिनाई गई हैं और वे तत्त्वतः प्रशस्त ही हैं; किन्तु यहाँपर तीव्रानुभावबन्धवाली अप्रशस्त प्रकृतियों के बीचमें मिथ्यादृष्टिके बन्ध सम्भव होनेसे उन्हें फिर भी गिनाया गया है, सो उनका अप्रशस्तपना दिखलानेके लिए ऐसा नहीं किया गया है; किन्तु मिथ्यादृष्टि देव आतपप्रकृतिका, सप्तम नरकका मिथ्यादृष्टि नारकी उद्योतका और मनुष्य तियेच मिथ्यादृष्टि मनुष्यायु और तिर्यगायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं; केवल यह दिखलानेके लिए ही यहाँपर उनका पुनः निर्देश किया गया है। इसलिए उन चारको छोड़कर ८२ प्रकृतियाँ ही अप्रशस्त जानना चाहिए। 1. सं० पञ्चसं० ४, २८८-२८९ । १. शतक. ७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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