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________________ ४६२ पश्चसंग्रह अब चौथे गुणस्थानमें सम्भव विशेष भंगोंका निरूपण करते हैं 'अविरयसम्मे सट्ठी भंगा वे-जोगएण संगुणिया। पुणरवि सोलह-गुणिया भंगवियप्पा हवंति णायव्वा ॥३५७॥ . अविरतसम्यग्दृष्टेः पष्टिभङ्गा ६० वैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ संगुणिताः १२० । पुनरपि पुन्नपुसकवेदद्वयं हास्यादिद्वयं २ कषायचतुष्कजनितपोडशभिर्भङ्ग १६ गुणिता एकसहस्रविंशत्यधिकनवशतप्रमिताः भवन्ति ज्ञातव्याः ॥३५७॥ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थानमें जो पहले उदयस्थान-सम्बन्धी साठ भंग बतलाये हैं, उन्हें वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाय इन दो योगोंसे गुणित करना चाहिए । पुनरपि उदयप्रकृतियोंके परिवर्तनसे सम्भव सोलह भंगोंसे गुणित करने पर जो संख्या उत्पन्न हो, उतने अर्थात् उन्नीस सौ बीस (१९२०) भंग-विकल्प जानना चाहिए ॥३५७॥ 2 असंजये उदया ८८ ७७ एदेसि च पयडीओ ६० पुवुत्त-सोलसभंगगुणा १६० । वेउब्विय मिस्स-कम्मइयजोगगणा एगसहस्सं णवसदवीसुत्तरिया ते भंगा ११२०।। तथाहि-असंयतवैक्रियिकमिश्र-कार्मणयोगयोः स्त्रीवेदोदयो नास्ति, असंयतस्य स्त्रीष्वनुत्पत्त। असंयते एते उदया ८८। ७१७ एतेषां च प्रकृतयः ६० पूर्वोक्तषोडशभङ्गुणितः १६० । पुनः वैक्रि यिकमिश्र-कार्मणयोगाभ्यां २ गुणिता एकसहस्रविंशत्यग्रनवशतप्रमिता १६२० उदयविकल्पा भवन्ति । असंयतगुणस्थानमें उदयस्थान ६, ८, ८, ७ और ८, ७, ७, ६ प्रकृतिक आठ होते हैं। इनकी सर्व प्रकृतियाँ साठ होती हैं। उन्हें पूर्वोक्त सोलह भंगोंसे गुणा करनेपर ६६० पदवृन्द-भंग होते हैं। इन्हें वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाय, इन दो योगोंसे गुणा करनेपर एक हजार नौ सौ बीस (१९२०) भंग प्राप्त होते हैं। "तेसिं सहि वियप्पा अट्टवियप्पेण संगुणिया । तस्सोरालियमिस्से चउसदसीदी य भंगया जाण ॥३५८॥ एदे पुण पुव्वुत्ता पक्खित्ते हुंति भंगा दु+। असंयतस्यौदारिकमिश्रयोगस्य ८।८। ७१७ तेपामुदयविकल्पाः षष्टिः ६० पुंवेदैक १ हास्यादियुग्म २ कषायचतुष्क ४ हताष्टभिर्भङ्ग ८ गुणिता: अशीत्यधिकचतुःशतप्रमिताः ४८० असंयतौदारिकमिश्रे इति जानीहि । असंयतौदारिकमिश्रत्य स्त्री-पण्डत्वेनानुत्पत्तेः । एते पुनः पूर्वोक्ता भङ्गाः १६२० प्रक्षेपणीयाः॥३५८॥ उसी अविरतसम्यक्त्वी जीवके औदारिकमिश्रकाययोगमें चारसौ अस्सी भंग और जानना चाहिए। जो कि पूर्वोक्त साठ उदयविकल्पोंको आठ भंगोंसे गुणा करनेपर प्राप्त होते हैं। इन भंगोंको पूर्वोक्त १६२० भंगोंमें प्रक्षेप करनेपर सर्व अपर्याप्त-दशागत भंगोंका प्रमाण २४०० आ जाता है ॥३५८॥ . 1. सं० पञ्चसं० ५, ३७१-३७२। 2. ५, 'असंयतेऽष्टोदयाः' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० २०८)। 3.५, ३७३ । + संस्कृतटीकाप्रतौ गाथामिदं नास्ति । . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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