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________________ पञ्चसंग्रह का. अ असौ न म्रियते यस्मात्कालगन्तर्मुहूर्तकम् । मिश्रत्रयं विना तस्माद्यौगिकाः प्रत्ययाः दश ।।१६।। इति १।१३।१२।१ जो अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होता है, उसके एक आवलीमात्रकाल तक अनन्तानुबन्धी कषायोंका उदय नहीं होता है। तथा सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवका अन्तर्मुहूर्तकाल तक मरण भी नहीं होता है इस नियमके अनुसार मिथ्यादृष्टिके एक समयमें पाँच मिथ्यात्वों में से एक मिथ्यात्व, पाँच इन्द्रियोंमेंसे एक इन्द्रिय, छह कायोंमें से एक काय, अनन्तानुबन्धीके विना शेष कषायोंमेंसे क्रोधादि तीन कषाय, तीन वेदोंमें से कोई एक वेद, हास्यादि दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल और आहारकद्विक तथा अपर्याप्तकाल-सम्बन्धी तीन मिश्रयोग, इन पाँचके विना शेष दश योगोंमें से कोई एक योग इस प्रकार जघन्यसे दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१०३-१०४॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१+३+१+२+१= १० मि० इ० का० क. वे० हा० यो * इस कूटका अभिप्राय इस प्रकार हैआगे मिथ्यात्वादि गुणस्थानोंमें जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट संख्या तकके बन्ध-प्रत्ययोंके उत्पन्न करनेके जो प्रकार बतलाये गये हैं, उनमें जहाँ जितने और जो बन्ध-प्रत्यय विवक्षित हैं यद्यपि उनका संख्याके साथ नाम निर्देश गाथाओंमें किया गया है, तथापि काय-सम्बन्धी अविरति, अनन्तानुबन्धि-चतुष्क और भय-युगलके सद्भाव-असद्भावके जिन भंगोंका निर्देश किया गया है, वहाँ उनके स्थानमें विवक्षित अन्य प्रत्ययोंके साथ उनके अन्य भंग भी हो सकते हैं । परन्तु ऐसा करनेसे स्थानोंकी निश्चित संख्याका व्यतिक्रम हो जाता है, जो विवक्षित स्थान-संख्याको ध्यानमें रखते हुए अभीष्ट नहीं है । इस प्रकारके इस गूढार्थको स्पष्ट करनेके लिए कूटोंकी रचना की गई है। इन कूटोंसे गाथामें निर्दिष्ट विवक्षित स्थान-संख्याके साथ काय-विराधना आदि तीनोंक भंगोंका स्पष्ट बोध हो जाता है। उदाहरण-स्वरूप दश-प्रत्ययक बन्धस्थानके इस कूटके प्रथम भागमें 'का'के नीचे एकका अंक दिया हुआ है, जिसका अभिप्राय यह है कि यहाँपर कायसम्बन्धी एक-संयोगी गुणकार विवक्षित है। 'अ' के नोचे शून्य दिया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि यहाँपर अनन्तानुबन्धि-चतुष्कसे रहित स्थान विवक्षित है। 'भ०'के नीचे जो शून्य दिया गया है, उससे यह सूचित किया गया है कि यहाँपर भय-युगलसे रहित स्थान विवक्षित है । आगे आनेवाले सभी कूटोंमें दिये गये अंकों या शून्योंसे भी इसी प्रकारका अर्थ लेना चाहिए । इस प्रकारके गूढ रहस्यसे अन्तर्हित रखनेके कारण इसे कूट-संज्ञा दी गई है। पंच मिच्छत्ताणि, छ इंदियाणि, छकाया, वत्सारि वि कसाया, तिणि वेया, एयजुयलं, दस जोगा। ५।६।६।४।३।२।३० । अपगोषणगुणिया दसजोगजहण्णभंगा ४३२०० । एतेषाञ्च भङ्गा:-मिथ्यात्वपञ्चकेन्द्रियपट क-कायषटक-कपायचतुष्क-वेदत्रय-युग्मद्वययोगदर्शकतमभङ्गाः ५।६।६।४।३।२।१० । अन्योन्यगुणिताः दशसंयोगस्य जघन्यभङ्गाः स्युः ४३२०० । तत्कथम् ? दश १० द्वाभ्यां २ गुणिता: विशतिः २०, त्रिभिर्गुणिताः षष्टिः ६०, चतुर्भिगुणिताः २१०। एते षडभिगुणिता: १४४०। एते पुनः पड्भिगुणिताः ८६४० । एते पञ्चभिगुणिताः ४३२०० । अनेन प्रकारेण सर्वत्र अन्योन्यभङ्गाः गुगनीयाः ॥१०॥ १. सं. पञ्चसं० ४, ५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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