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________________ शतक इन दश बन्ध-प्रत्ययोंके भंग तेतालीस हजार दो सौ होते हैं। उनके निकालनेका प्रकार यह है-पाँच मिथ्यात्व, छह इन्द्रियाँ, छह काय, चारों कषाय, तीनों वेद, हास्यादि एक युगल और दश योग, इन्हें क्रमसे स्थापित करके परस्परमें गुणा करनेपर जघन्य दश बन्ध-प्रत्ययोंके भंग सिद्ध होते हैं। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है ५४६४६x४४३४२४१० = ४३२०० दश बन्ध-प्रत्ययोंके भंग । आगे बतलाये जानेवाले मिथ्याष्टिके ग्यारह बन्ध-प्रत्यय- का० अ० भ० सम्बन्धी भंगोंको निकालनेके लिए बीजभूत कूटकी रचना इस प्रकार है मिच्छत्तक्ख दुकाया कोहाई तिणि वेय एगो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो एयारसं हेऊं ॥१०॥ ११।२।३।१।२।१। मिलिया ११ । मिथ्यात्वमेकं १ खमिन्द्रियमेकं १ द्विकायविराधनाद्विकं २ अनन्तानुबन्धिरहित-कषायत्रिकं ३ वेद एकः १ हास्यादियुगलं २ योग एकः , चेत्येवं संयोगीकृता मध्यमहेतवः प्रत्ययाः भवन्ति ।। २।३।१।२।१ । मीलिताः ११ ॥१०५॥ . मिथ्यात्वगुणस्थानमें मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय दो, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१०५॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+२+३+१+२+१=११ । मिच्छत्तक्खं काओ कोहाइचउक वेय एगो य । हस्साइजुयलमेयं जोगो एयारसं हेऊ ॥१०६।। ११।४।१।२।। मिलिया ११ । मिथ्यात्वमेकतम १ खमिन्द्रियमेकं १ कायः १, क्रोधादिचतुष्कं ४ अत्रानन्तानुबन्धित्वात् । वेद एकतमः १ हास्यादियुगलं । संयोगे एकादश ११ मध्यमप्रत्ययाः १११।१।४।१२।१ मीलिताः ११॥१०६॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।१०६।। इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१+४+१+२+१=११ । मिच्छत्तक्खं काओ कोहाई तिण्णि वेय एगो य । हस्साइजुयं एयं भयदुय एयं च जोगो ते ॥१०७|| ११।१।३।१।२।१।। मिलिया ११ । मिथ्यात्वे १ न्द्रिय १ क्रोधादिकै ३ कवेदै १ क-हास्यादियुग्म २ भयेक १ योगैकतमाः भङ्गाः ।। १।१।३.१।२।१। पिण्डीकृताः ११ ॥१०७॥ अथवा मिथ्यात्व एक, इन्द्रिय एक, काय एक, क्रोधादि कषाय तीन, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भय-जुगुप्सामेंसे एक, और योग एक; ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१०७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+१+१+३+१+२+१+१=११ । एदेसि च भंगा-५।६।१५।४।३।२।१० एदे अण्णोण्णगुणिया १०८०००। . ५।६।६।४।३।२।१३। एदे अण्णोण्णगुणिय । ५६१६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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