SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४.४ पञ्चसंग्रह अब लेश्याओंकी अपेक्षा मोहनीयके पदवृन्द बतलाते हैं 'मिच्छादिढिप्पहुदि जाव अपुव्वंतलेसकप्पा दु । पयडिट्ठाणेहिं हया चउवीसगुणा य होति पदबंधा ॥३८०॥ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक जो लेश्याके विकल्प बतलाये गये हैं उन्हें पहले उस उस गुणस्थानके उदयस्थानोंकी प्रकृतियोंसे गुणा करे। पीछे चौबीससे गुणा करने पर विवक्षित गणस्थानके पदवृन्द प्राप्त हो जाते हैं ॥३८०॥ अट्ठसु गुणठाणेसु पुन्वुत्ता उदयपयडीओ ६८।३२।३२।६०५२।४४।४४।२०। सग-सगलेसगुणा ४०८।१६२११६२।३६०।१५६।१३२।१३२:२० । चउवीस-भंग-गुणा __ आदिके आठों गुणस्थानोंमें पूर्व में बतलाई गई उदयप्रकृतियाँ क्रमशः ६८, ३२, ३२, ६०, ५२,४४,४४ और.२० होती है। इन्हें अपने अपने गुणस्थानकी लेश्या-संख्यासे गुणा करनेपर ४०८, १६२, १६२, ३६०, १५६, १३२, १३२ और २० संख्या प्राप्त होती हैं। उस संख्याको चौबीस भंगोंसे गुणा करनेपर प्रत्येक गुणस्थानके उदयपदवृन्दोंका प्रमाण प्राप्त हो जाता है। अब भाष्यगाथाकार स्वयं प्रत्येक गुणस्थान पदवृन्दोको कहते हैं मिच्छादिट्ठी-भंगा सत्तसया णवसहस्स वाणउदी । सासणसम्मे जाणसु छायालसदा य अट्ठधिया ॥३८॥ १७६२१४६०८। मिश्यादृष्टिगुणस्थानके सर्व भंग नौ हजार सात सौ बानबै ( ६६२ ) होते हैं । सासादनसम्यक्त्वमें आठ अधिक छयालीस सौ अर्थात् चार हजार छह सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं ॥३८॥ सम्मामिच्छे जाणसु तावदिया चेव होंति भंगा हु। अठेव सहस्साई छस्सय चाला अविरदे य ॥३८२॥ ४६०८।८६४० । सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्थानमें भी इतने ही अर्थात् चार हजार छह सौ आठ (४६०८) जानना चाहिए । अविरतसम्यक्त्वमें आठ हजार छह सौ चालीस (८६४०) भंग होते हैं ॥३८२॥ विरयाविरए जाणसु चोद्दाला सत्तसय तिय सहस्सा । विरदे य होंति णेया एकत्तीस सय अडसट्टी ॥३८३॥ ३७४४।३१६८। विरताविरतमें तीन हजार सात सौ चवालीस (३७४४) भंग होते हैं। प्रमत्तविरतमें इकतीससौ अडसठ अर्थात् तीन हजार एक सौ अडसठ (३१६८) भंग होते हैं ॥३८३।। अथ अप्पमत्तविरदे तावदिया चेव होंति णायव्वा । जाणसु अपुव्वविरदे चउसदमसिदी य भंगा हु ॥३८४॥ ३१६८१४८०। सव्वे मेलिया ३८२०८। 1. सं० पञ्चसं० ५, गुणाष्टके पदबन्धे' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१०-२११)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy