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________________ ४७५ सप्ततिका अप्रमत्तविरतमें भी इतने ही भंग होते हैं अर्थात् तीन हजार एक सौ अड़सठ (३१६८ ) भंग जानना चाहिए । अपूर्वकरणमें चार सौ अस्सी (४८०) भंग होते हैं ॥३८४॥ इस प्रकार आठों गुणस्थानोंके सर्वपदवृन्द भिलकर ३८२०८ होते हैं। ऊणत्तीसं भंगा अणियट्टी-सुहुमगाण बोहव्वा । सव्वे वि मेलिदेसु य सव्ववियप्पा वि एत्तिया होति ॥३८॥ . अणियहि-सुहुमाणं उदयपयडीओ २६ । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायके उनतीस भंग जानना चाहिए । इन सर्वभंगोंके मिला देनेपर जो सर्वविकल्पोंका प्रमाण होता है । वह इतना ( वक्ष्यमाण ) है ॥३८५॥ अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायको उदयप्रकृतियाँ २६ होती हैं। . 'अत्तीससहस्सा वे चेव सया हवंति सगतीसा । पदसंखा णायव्वा लेसं पडि मोहणीयस्स ॥३८६॥ ३८२३७। ...... "[अष्टात्रिंशत्सहस्र ] द्विशतसप्तत्रिंशत्प्रमिता पदसंख्या मोहोदयप्रकृति विकल्पाः प्रागुक्तलेश्यामाश्रित्य............."[ ज्ञा] तव्याः ॥३८६॥ गुण० स्थान० प्रकृ० लेश्या स्था० गुण. भंगाः भंगधिक० मि० ८ ६८ ६ ४८ २४ ११५२ १७६२ सा० ४ ३२ ६ २४ २४ ५७६ मि०४ ३२ ६ २४ २४ ५७६ १६२ अवि. ११५२ ८६४० ३७४४ प्रम० ४४ ३ ३१६८ अप्र० ८ ४४ ३ २४ २४ ५७६ ३१६८ १३२ अपू० २० . ४ २४ १६ ४८० अनि० ४ २ १ १ १२ १२ ४०८ ४६०८ ४६०८ ० ३० द ०० ० सूचम० १ . १ . . ३८२३७ मोहनीयकर्मके लेश्याकी अपेक्षा सर्व पदवृन्दोंकी संख्या अड़तीस हजार दो सौ सेंतीस (३८२३७) होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥३८६।। 1. सं० पञ्चसं० ५, ३८६ । १. गो. क. गा० ५०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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