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________________ पञ्चसंग्रह योगरहित अयोगिजिनका स्वरूप 'जेसिं ण संति जोगा सुहासुहा पुण्णपापसंजणया । ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंतगुणकलिया ॥१०॥ ___जिनके पुण्य और पापके संजनक अर्थात् उत्पन्न करनेवाले शुभ और अशुभ योग नहीं होते हैं, वे अयोगिजिन कहलाते हैं, जो कि अनुपम और अनन्त गुणोंसे सहित होते हैं ॥१००।। इस प्रकार योगमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब वेदमार्गणाका निरूपण करते हुए पहले वेदका स्वरूप कहते हैं श्वेदस्सुदीरणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो । इत्थी पुरिस णउंसय वेयंति तदो हवदि वेदो ॥१०१।। ____वेदकर्मको उदीरणा होनेपर यह जीव नाना प्रकारके बालभाव अर्थात् चांचल्यको प्राप्त होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव एवं नपुंसक भावका वेदन करता है, अतएव वेदकर्मके उदयसे होनेवाले भावको वेद कहते हैं ॥१०१॥ वेदके भेद और वेद-वैषम्यका निरूपण-- - तिव्वेद एव सव्वे वि जीवा दिट्ठा हु दव्व-भावादो। ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाकम सव्वे ॥१०२।। द्रव्य और भावकी अपेक्षा सर्व ही जीव तीनों वेदवाले दिखाई देते हैं और इसी कारण वे सर्व ही यथाक्रमसे विपरीत वेदवाले भी सम्भव हैं ॥१०२।। भाववेद और द्रव्यवेदका कारण "उदयादु णोकसायाण भाववेदो य होइ जंतूणं । जोगी य लिंगमाई णामोदय दव्ववेदो दु॥१०३॥ नोकषायोंके उदयसे जीवोंके भाववेद होता है। तथा योनि, लिंग आदि द्रव्य वेद नामकर्मके उदयसे होता है ॥१०३।। वेद-वैषम्यका कारण इत्थी पुरिस णउंसय वेया खलु दव्व-भावदो होति । ते चेव य विवरीया हवंति सव्वे जहाकमसो ॥१०४॥ स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये तीनों ही वेद निश्चयसे द्रव्य और भावकी अपेक्षा दो प्रकारके होते हैं और वे सर्व ही विभिन्न नोकपायोंके उदय होनेपर यथाक्रमसे विपरीत भी परिणत होते हैं ।।१०४॥ 1. सं० पञ्चसं० १, १८० । 2.१,१८६-१८७ । 3. १, १९१-१९२ । 4. १,१८८-१८९ । ' 5. १, १९३-१९४ । परन्त्वत्र मतभेदो दृश्यते । १. ध० भा० १ पृ० २८० गा० १५३ । गो० जी० २४२ । २. ध० भा० १ पृ० १४५ गा० ८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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