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________________ जीवसमास स्त्रीवेदका स्वरूप 'छादयदि सयं दोस्रोण जदो छादयदि परं पि दोसेण । छादणसीला णियदं तम्हा सा *वणिया इत्थी ॥१०॥ जो मिथ्यात्व आदि दोषसे अपने आपको आच्छादित करे और मधुर-भाषणादिके द्वारा दूसरेको भी आच्छादित करे, वह निश्चयसे यतः आच्छादन स्वभाववाली है अतः 'स्त्री' इस नामसे वर्णित की गई है ॥१०॥ पुरुषवेदका स्वरूप पुरु गुण भोगे सेदे करेदि लोयम्हि पुरुगुणं कम्मं । पुरु + उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो ॥१०६॥ जो उत्तम गुण और उत्कृष्ट भोगमें शयन करता है, लोकमें उत्तम गुण और कर्मको करता है, अथवा यतः जो स्वयं उत्तम है, अतः वह 'पुरुष' इस नामसे वर्णित किया गया है ॥१०६।। नपुंसकवेदका स्वरूप णेवित्थी ण य पुरिसो णउंसओ उभयलिंगवदिरित्तो । इट्टावग्गिसमाणो वेदणगरओ कलुसचित्तो ॥१०७।।। जो भावसे न स्त्रीरूप है और न पुरुषरूप है, तथा द्रव्यकी अपेक्षा जो स्त्रीलिंग और पुरुषलिंगसे रहित है, ईटोंको पकानेवाली अग्तिके समान वेदकी प्रबल वेदनासे युक्त है, और सदा कलुषित-चित्त है, उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए ।।१०७।। अपगतवेदी जीवोंका स्वरूप ___ 'करिसतणेट्टावग्गीसरिसपरिणामवेदणुम्मुका।। अवगयवेदा जीवा सयसंभवxणंतवरसोक्खा ॥१०८॥ जो कारीष अर्थात् कंडेकी अग्नि, तृणकी अग्नि और इष्टपाककी अग्निके समान क्रमशः स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदरूप परिणामोंके वेदनसे उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मामें उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्त सुखके धारक या भोक्ता हैं, वे जीव अपगतवेदी कहलाते हैं ॥१०८।। इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई। कषायमार्गणा, कषायका स्वरूप सुह-दुक्खं बहुसस्सं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्स । __ संसारगदी +मेरं तेण कसाओ त्ति णं विंति ॥१०॥ जो क्रोधादिक जीवके सुख-दुःखरूप बहुत प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूप खेत को कर्षण करते हैं, अर्थात् जोतते हैं और जिनके लिए संसारकी चारों गतियाँ मर्यादा या मेंढ-. रूप हैं, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं ।।१०।। 1. सं० पञ्चसं० १, १९९ । 2. १, २०० । 3. १, २०१ । 4. १, २०२। 5. १, २०३। १. ध० भा० १ पृ० ३४१ गा० १७०। गो० जी० २७३ । २. ध० भा०१ पृ० २४१ गा. १७१ । गो. जी. २७२ । ३. ध० भा०१ पृ० ३४२ गा० १७२। गो० जी० २७४ । ४. ध० भा० १, पृ० ३४२ गा० १७३ । गो० जी० २७.५ । ५. ध० भा० १, पृ. १४२ गा० १० । गो० जी० २८१ । 8 ब बनिया । +द ब पुरउत्तिमो। द सारं। Xद ब -मणंत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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