SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ कषायके भेद और उनके कार्य पञ्चसंग्रह 'सम्मत - देस संजम संसुद्धीघाइकसाई पढमाई । सिं तु भवे नासे सड्ढाई चउहं । उप्पत्ती ॥११०॥ प्रथमादि अर्थात् अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषाय क्रमशः सम्यक्त्व, देशसंयम, संकलसंयम और पूर्ण शुद्धिरूप यथाख्यातचारित्रका घात करते हैं । किन्तु उनके नाश होनेपर आत्मामें श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व आदिक चारों गुणोंकी उत्पत्ति होती है ।। ११० ।। क्रोधकषाय की जातियाँ और उनका फल - 2 सिलभेय पुढविभेया धूलीराई य उदयराइसमा । + णिर- तिरि-णर- देवत्तं उविंति जीवा हु कोहवसा ॥ १११ ॥ अनन्तानुबन्धी क्रोध शिलाभेद के समान है, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध पृथ्वीभेदके समान है, प्रत्याख्यानावरण क्रोध धूलिराजिके समान है और संज्वलनक्रोध उदक अर्थात् जल - राजिके समान है । इन चारों जातिके क्रोध के वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिको प्राप्त होते हैं ||१११ ॥ मानक पाय की जातियाँ और उनका फल सेलसमो असिमो दारुसमो तह य जाण वेत्तसमो । x रि-तिरि-र-देवत' उविंति जीवा हु माणसा ||११२|| अनन्तानुबन्धी मान शैल-समान है, अप्रत्याख्यानावरण मान अस्थि-समान है, प्रत्याख्यानावरण मान दारु अर्थात् काष्टके समान है और संज्वलन मान वेत्र ( वेंत ) के समान है । इन चारों जातिके मानके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ॥ ११२ ॥ मायाकषायकी जातियाँ और उनका फल - Jain Education International वसीमूलं मेसस्स सिंग गोमुत्तियं च खोरुप्पं । + णिर- तिरि-र- देवत्त उविंति जीवा हु मायवसा ॥ ११३ ॥ अनन्तानुबन्धी माया बाँसकी जड़के समान है, अप्रत्याख्यानावरण माया मेषा के सींग के समान है, प्रत्याख्यानावरण माया गोमूत्र के समान है और संज्वलन माया खुरपाके समान है । इन चारों ही जातिके मायाके वशसे जीव क्रमशः नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवत्वको प्राप्त होते हैं ।। ११३ || लोभकषायकी जातियाँ और उनका फल " किमिराय चक्कमल कदमो य तह चेय : जाण हारिद्दं । *णिर-तिरिणर- देवत्तं उविंति जीवा हु लोहवसा ॥ ११४ ॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २०४ - २०५ । 2. १, २०६ । ३. १, २०७ । 4. १२०८ । . १, २०९ । + द ब च हुं । कब गिर । x ब गिर + व णिर व चेय । *व गिर । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy