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________________ पञ्चसंग्रह ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीन गुणस्थानोंमें केवल योगप्रत्ययसे कर्म-बन्ध होता है। इस प्रकार आठों कर्मों के बन्धके कारण ये सामान्य प्रत्यय होते हैं ।।७८-७६| अब गुणस्थानोंमें उत्तर प्रत्ययोंका निरूपण करते हैं 'पणवण्णा पण्णासा तेयाल छयाला सत्ततीसा य। चउवीस दु वावीसा सोलस एऊण जाव णव सत्ता ॥८॥ *णाणाजीवेसु णाणासमएसु उत्तरपञ्चया गुणहाणेसु ५५।५०।४३।४६।३७।२४।२२।२२। अणियट्टिम्मि १६।१५।१४।१३।१२।११।१०। सुहुमाइसु पंचसु १०।।६।७। उत्तरप्रत्ययाः गुणस्थानेषु क्रमेण कथ्यन्ते-पञ्चपञ्चाशत् ५५, पञ्चाशत् ५०, त्रिचत्वारिंशत् ४३, षट्चत्वारिंशत् ४६, सप्तत्रिंशत् ३७, चतुर्विंशतिः २४, द्विवारद्वाविंशतिः २२, २२; षोडश १६ यावन्नवाई है तावदेकोनः १५, १४, १३, १२, ११, १०, ६ । ७, ८०॥ नानाजीवेषु नानासमयेषु उत्तरप्रत्ययाः गुणस्थानेषु-- मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अ० अ० अनिवृत्तस्य सप्तभागेषु सू० उ० सी० स० अ० ५५ ५० ४३ ४६ ३७ २४ २२ २२, १६ १५१४ १३ १२ १३ १०, १०६ ६ ७ . मिथ्यात्व गुणस्थानमें पचपन उत्तर प्रत्ययोंसे कर्म-बन्ध होता है। सासादनमें पचास उत्तर प्रत्ययोंसे कर्म-बन्ध होता है। मिश्रमें तेतालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं। अविरतमें छयालीस उत्तर प्रत्यय होते हैं । देशविरतमें सैतीस उत्तर प्रत्यय होते हैं। प्रमत्तविरतमें चौबीस उत्तर प्रत्यय होते हैं। अप्रमत्तविरतमें बाईस उत्तर प्रत्यय होते हैं । अपूर्वकरणमें बाईस उत्तर प्रत्यय होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें सोलह और आगे एक-एक कम करते हुए दश तक उत्तर प्रत्यय होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायमें दश उत्तर प्रत्यय होते हैं । उपशान्तकषाय और क्षीणकषायमें नौ-नौ उत्तर प्रत्यय होते हैं। सयोगिकेवलीमें सात उत्तर प्रत्यय होते हैं। अयोगिकेवलीमें कर्म-बन्धका कारणभूत कोई भी मूल या उत्तर प्रत्यय नहीं होता है ।।८०॥ गुणस्थानोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा नाना समयोंमें उत्तरप्रत्यय इस प्रकार होते हैंमि. सा. मि० अवि० दे० प्र० अप्र० अपू० अनिवृत्तिकरण ५५ ५० ४३ ४६ ३७ २४ २२ २२, १६ १५ १४ १३ १२१११०, सू० ट५० सी० सयो० अयो० अब ग्रन्थकार किस गुणस्थानमें कौन-कौन उत्तरप्रत्यय नहीं होते, यह दिखलाते हैं आहारदुअ-विहीणा मिच्छूणा अपुण्णजोअ अणहीणा ते । अपज्जत्तजोअ सह ते ऊण तसवह विदिय अपुण्णजोअ वेउव्या ॥१॥ ते एयारह जोआ छटे संजलण णोकसाया य । आहारदुगूणा दुसु कमसो अणियट्टिए इमे भेया ॥८२॥ छकं हस्साईणं संठित्थी पुरिसवेय संजलणा। बायर सुहुमो लोहो सुहुमे सेसेसु सए सए जोया ॥३॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ३२-३४ । 2. ४, ३५ । 3. ४, 'आहारकद्वयोना' इत्यादि गद्यभागः (पृ० ८५)। +ब छायाल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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