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पञ्चसंग्रह
अब भाष्यगाथाकार उक्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश करते हैं
देवायुको छोड़कर शेष तीन आयु, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलेन्द्रित्रिक और वैक्रियिकषट्क, इन पन्द्रह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य और संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च करते हैं । तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, तथा उसके अंगोपाङ्गनामकर्म, सृपाटिकासंहनन और उद्योत; इन छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध देव और नारकी करते हैं । एकेन्द्रिय, आतप और स्थावरनामकर्म, इन तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ईशानकल्प तकके देव और देवी करते हैं ।।४२६-४३१ ॥
विशेषार्थं - उत्कृष्ट संक्लेशसे कुछ हीन, या नीचे उतरते संक्लेशको ईषन्मध्यम संक्लेश'
करते हैं ।
[ मूलगा ०६०] 'सेसाणं चउगइया ठिदि उकस्सं करिंति पयडीणं । उक्कस्ससंकिलेसेण ईसिमहमज्झिमेणावि' ||४३२॥
शेषाणां द्वानवतिसंख्योप्रेतप्रकृतीनां १२ उत्कृष्टस्थितिबन्धं उत्कृष्टसंक्लेशेन परिणामेनाथवा ईपन्मध्यमसंक्लिष्टेन परिणामेन चातुर्गतिका मिथ्यादृष्टया जीवा कुर्वन्ति बध्नन्ति ६२ ॥ ४३२ ॥
ऊपर कही हुई प्रकृतियोंके सिवाय जितनी भी शेष बानवै प्रकृतियाँ हैं, उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चारों गतिके जीव उत्कृष्ट संक्लेशसे, अथवा ईषन्मध्यम संक्लेश से करते हैं ॥४३२ ॥ अब मूलशतककार शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करनेवाले स्वामियोंका निर्देश करते हैं
अब मूलशतककार जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका निरूपण करते हैं[मूलगा ०६१] ' आहारय-तित्थयरं णियट्टि अणियट्टि पुरिस संजलणं । बंध सुहुमसराओ सायजसुच्चावरण विग्यं ॥४३३||
३|५| दंसणावरणचउक्कं ॥१७॥
अथ जघन्यस्थितिबन्धस्वामिजीवान् गाथाद्वयेनाऽऽह - [ 'आहारयतिथ्यरं' इत्यादि । ] आहारकाहारकाङ्गोपाङ्गद्वयस्य तीर्थंकरत्वस्य च जघन्यस्थितिं अपूर्वकरणो निर्बंध्नाति ३ । पुंवेद-चतुः संज्वलनानां जघन्यस्थितिं अनिवृत्तिकरणगुणस्थानस्थो मुनिर्बंध्नाति ५ । सातवेदनीयं १ यशस्कीर्त्ति १ उच्चैर्गोत्र १ ज्ञानावरणपञ्चकं ५ दानाद्यन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ चेति सप्तदशप्रकृतीनां जघन्य स्थितिबन्धं सूक्ष्मसाम्पराय एवं बध्नाति १७ ॥४३३ ॥
आहारकद्विक और तीर्थङ्करनामकर्म; इन तीन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको अपूर्वकरणक्षपक; पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क इन पाँचको जघन्य स्थितिको अनिवृत्तिकरण-क्षपक; तथा पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, सातावेदनीय, यशःकीर्त्ति और उच्चगोत्र; इन सत्तरह प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक बाँधते हैं ||४३३||
३|५| ( ज्ञानावरण ५ + दर्शनावरण ४ + अन्तराय ५ + सा० १ ० १ ० १ ) १७
1. सं० पञ्चसं० ४, २४६ । १.४, २५० - २५१ ।
१. शतक० ६२ । २. शतक० ६३ ।
+ब किरति ।
१. उक्कोससंकिलेसाओ ऊण ऊगतराणि य ठिइबन्धझवसाणठाणाणि, तेहिंपि तमेव उक्कस्सियं ठिइं व्विति, ते ईसिमज्झिमा वुच्चंति । शतकचूर्णि ।
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