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________________ परिशिष्ट श्री० ब्र० पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार ( सहारनपुर ) ने प्रस्तुत ग्रन्थका स्वाध्याय कर मूल एवं टीकागत पाठोंके विषयमें कितने ही स्थलोंपर सैद्धान्तिक आपत्तियाँ उठाई हैं और उसके परिहारार्थ पाठ-संशोधनके रूपमें अनेक सझाव दिये हैं. हम उन्हें यहाँ साभार ज्यों-का-त्यों दे रहे हैं और विद्वज्जनोंसे अनुरोध करते हैं कि वे उनपर गहराईके साथ विचार करें और जो पाठ उन्हें आगमानुकूल प्रतीत हों, उन्हें यथास्थान सुधार लेवें । चूंकि मूलप्रतिमें वैसे पाठ उपलब्ध नहीं हैं, अतएव सुझाये गये पाठोंको हमने शुद्धि-पत्रके रूपमें नहीं दिया है । उनके द्वारा पूछी गई दो-एक बातोंका उत्तर इस प्रकार है पृ० १२ पर टिप्पणीमें जो "उवसमेण सह.... औपशमिकस्य सप्त दिनानि" पाठ दिया है, वह आदर्श मूलप्रतिमें हाँशियमें दिये गये टिप्पणके आधारसे दिया गया है। . पृ० २४ पर गाथाङ्क ११० से ११५ तकके अर्थमें जो अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंके नामोंका उल्लेख किया गया है, उसका आधार श्वे. नवीन कर्मग्रन्थ भाग प्रथमकी निम्न गाथा है "जा जीव-वरिस-चरमास-पक्खग्गा निरय-तिरिय-नर-अमरा । सम्माणुसव्वविरई-अहखायचरित्तघायकरा ॥१८॥ इसके अतिरिक्त नेमिचन्द्राचार्य विरचित कर्मप्रकृतिमें (जो कि अभी तक अप्रकाशित है ) भी चारों गाथाएँ आई हैं और ये गाथाएँ गो० जीवकाण्डमें भी हैं। उसके संस्कृत टीकाकारोंने उनका अर्थ करते हुए कषायों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य अनुभागशक्तिके फलस्वरूप क्रमशः नरकादि गतियोंमें उत्पत्ति है। इन दोनों टीकाओंका आधार लेकर पं० हेमराजजीने आजसे लगभग तीनसौ वर्ष पूर्व उक्त गाथाओंका जो अर्थ किया है उससे भी मेरे किये गये अर्थकी पुष्टि होती है। यहाँ उसका कुछ अंश उद्धृत किया जाता है "भावार्थ-पाषाणरेखा समान उत्कृष्ट [ शक्ति ] संयुक्त अनन्तानुबन्धो क्रोध जीवको नरगविष उपजाव है। हल करि कुवाजुहे भूमिभेद तिस समान मध्यमशक्ति संयुक्त अप्रत्याख्यान क्रोध तियंचगतिको उपजावै है। धूलिरेषा समान [अ] जघन्यशक्ति संयुक्त प्रत्याख्यान क्रोध जीवको मनुष्यगति उपजावै है । जलरेषा समान जघन्यशक्ति संयुक्त संज्वलन क्रोध देवगति विष उपजावै है।" ( देखो पत्र ३३ ) इस टीकाकी एक हस्तलिखित प्रति मेरे संग्रहमें है जो कि वि० सं० १७५३ के वैशाख सुदी ५ रविवारकी लिखी हुई है। कसायपाहुडमें उक्त दृष्टान्त चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक अनुभागशक्तिके ही रूपमें दिये गये हैं; किन्तु वहाँपर उनके द्वारा नरकादि गतियोंमें उत्पन्न करानेकी कोई चर्चा नहीं है। पू० ३९५ पर गा० २२८ के अन्तमें 'पमत्तिदरे' पाठ आया है। संस्कृत टीकाकारने उसका 'अप्रमत्ते' अर्थ किया है और तदनुसार हमने भी अनुवादमें 'अप्रमत्तगुणस्थान' लिखा है । परन्तु श्री० ब्र० पं० रतनचन्द्रजी मुख्तारका कहना है कि अप्रमत्तगुणस्थानमें २८ व २९ स्थानवाले नामकर्मका उदय नहीं है, केवल ३० स्थानवाले नामकर्मका उदय है। प्रमत्त गुणस्थानमें आहारकसमुद्घातके समय २८ व २९ प्रकृतिक स्थान होता है। अतः मूल पाठ 'पमत्तिदरे' के स्थानपर 'पमत्तविरदे' पाठ कर देना चाहिए और तथैव ही संस्कृत टीका और अनुवादमें भी अर्थ करना चाहिए । पर चूँकि किसी भी मूल प्रतिमें 'पमत्तविरदे' पाठ हमें नहीं मिला और न संस्कृत टीकाकारको ही, अतः शुद्धिपत्रमें उनका यह संशोधन नहीं दिया गया है, पर उनका तर्क आगमका बल रखता है, इसलिए विद्वज्जन इसपर अवश्य विचार करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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