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________________ ७८६ पञ्चसंग्रह इनके अतिरिक्त उन्होंने और भी अनेक स्थलोंपर पाठोंके संशोधनार्थ अनेक सुझाव उपस्थित किये हैं, जो कि निम्न प्रकार हैपृष्ठ पंक्ति १११ ४ 'परिहारविशुद्धौ त एव २४ आहारकद्वि कोनाः द्वाविंशतिः २२ ।' स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदी जीवोंके भी नहीं होता ( धवल पु० २ पृ० ७३४ ) । अतः परिहारविशुद्धि संयममें स्त्रीवेद व नपुंसकवेद ये दोनों बंधप्रत्यय भी कम होकर शेष २० बंधप्रत्यय होने चाहिए (धवल पु०८ पृ० ३०५)। ५२ ४ व ८ 'पल्लासंखेज्जभागूणा ।।४१८॥' ( पंक्ति ४)। 'पल्यासंख्यातभागहीनाः।' (पंक्ति ८) के स्थानपर 'पल्लसंखेजभागृणा ॥ ४१८॥' 'पल्यसंख्यातभागहीनाः।' होना चाहिए ( महाबंध पु० २ पृ० २४३ )। २८७ २१ 'तन्न, मिथ्यात्वद्रव्यस्य देशघातिनानेव स्वामित्वात् ॥५०८-५०९॥' अनन्तानुबंधीके मिथ्यात्वका देशघातिपना कैसे ? ३३१ २४-२५ "तच्चतुर्विधबन्धकानिवृत्तिकरणक्षपकश्रेण्यां एकविंशतिकसत्त्वस्थाने २१ मध्यमकषायाष्ट क्षपिते त्रयोदशकं सत्त्वस्थानम् ।" क्षपक श्रेणीमें चारका बंधस्थान सवेदके अन्तिम समयमें या अवेदमें होगा, उस समय आठ मध्यम कषायका सत्त्व नहीं होता। ३३२ २,३,४,६,८ "ते पुण अहिया णेया कमसो चउ-तिय-दुगेगेण ॥५०॥" 'तत्थ तिबंधए २८।२४।२११४ । दुबंधए २८।२४।२१।३ एयबंधे २८।२४।२।२।' (पंक्ति ३-४)। 'तानि पुनः क्रमशश्चतुस्त्रिद्विकैकेनाधिकानि मोहसत्त्वस्थानानि ।' ( पंक्ति ६)। 'तत्त्रिबन्धानिवृत्तिक्षपके पुंवेदे क्षयं गते चतुःसंज्वलनसत्त्वस्थानं ४ ।' ( पंक्ति ८)। तीन (मान माया लोभ ) के बंधकके क्रोधका क्षय हो जानेपर ३ का सत्त्वस्थान भी होता है। इसी प्रकार दो ( माया, लोभ ) के बंधकके मानका क्षय हो जानेपर दो प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी होता है। इसी प्रकार एक ( लोभ )के बंधकके मायाका क्षय हो जानेपर एक प्रकृतिक सत्त्वस्थान भी होता है। किन्तु ये सत्त्वस्थान मूल या टीकामें क्यों नहीं कहे गये ? ३४९ गुणस्थानकी अपेक्षा नामकर्मके उदयस्थानोंका कथन नहीं पाया जाता, किन्तु पृ०३८३ गाथा २०५-२०७ में गुरणस्थानवत् जाननेकी सूचना की है। इससे ज्ञात होता है कि गुणस्थानकी अपेक्षा नामकर्मके उदयस्थानोंका पाठ छूटा हुआ है। ३७५ ३५) तीर्थकरके केवलिसमुद्घातमें नामकर्मका २२ प्रकृतिक उदयस्थान कहा है, जो ठीक नहीं ३७६ है। प्रतर लोकपूरण अवस्थामें २१ प्रकृतिक उदयस्थान कहा है। उसके पश्चात् कपाट समुद्घातमें औदारिक मिश्र होनेपर औदारिकद्विक २, वज्रवृषभनाराच संहनन ३, उपघात ४, समचतुरस्रसंप्थान ५, प्रत्येकशरीर ६, के मिलनेपर २७ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । परघात, प्रशस्तविहायोगतिके मिलनेपर २९ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। पृ० ४२२ पर समुद्घात केवलीके २२ प्रकृतिक उदयस्थान नहीं कहा है। सामान्य केवलीकी अपेक्षा २०,२६ व तीर्थंकर केवलीकी अपेक्षा २१,२७ का उदयस्थान कहा है। ३८८ ३०-३१ "तिर्यग्गतिको मनुष्यो वा मिथ्यादृष्ठिः देवगति-तदानुपूर्व्यद्वयं उद्वेल्लयति, तदा अष्टाशीतिक ८८ । तथा नारकचतुष्कमुद्वेल्लयति, तदा चतुरशीतिक ८४ ।" पंचेन्द्रिय तियंच या मनुष्य देवगतिद्विक या नरकचतुष्ककी उद्वेलना नहीं करता। अतः यह पाठ इस प्रकार होना चाहिए-"तिर्यग्गतिको मनुष्यो वा मिथ्यादृष्टिः देवगति-तदानुपूर्व्यद्वयं पूर्वभवे उद्वेल्य तस्य अष्टाशीतिकं ८८। तथा नरकचतुष्कमुल्य तस्य चतुरशीतिकं ८४॥". या 'मनुष्यो वा' पाठ निकाल दिया जावे। (गो० के० गाथा ६१४,६१६,६२४ ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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