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________________ परिशिष्ट ७८७ पृष्ठ पृष्ठ पंक्ति ४०२ १६,१७,१८ "तु पुनश्चतुर्गतिजीवानां त्रिंशत्क-बंधे ३० पञ्चविंशतिकोदये २५ द्वानवतिक-नवतिक सत्त्वस्थानद्वयं ९२१९०। तिर्यङमनुष्येषु त्रिंशत्कबंधे ३० पञ्चविंशतिकोदय २५ अष्टाशीतिकचतुरशीतिसत्त्वस्थानद्वयम् ८८1८४ ।" नोट-मनुष्यमें २५ का उदयस्थान आहारकसमुद्घातके समय होता है। वहाँपर देवगति-सहित २८ का या तीर्थकर-सहित २९ का बंधस्थान संभव है । प्रमत्तगुणस्थान होनेके कारण आहारकद्विकका बंधस्थान संभव नहीं। प्रमत्तगुणस्थानमें ८८ ८ ८४ का सत्त्वस्थान भी संभव नहीं है। अत: 'चतुर्गतिजीवानां' के स्थानपर 'त्रिगतिजीवानां' पाठ होना चाहिए। तथा 'तिर्यङ्-मनुष्येषु' के स्थानपर 'तिर्यक्षु' पाठ होना चाहिए । ४१८ २६,२७ "सूक्ष्म अपर्याप्तकोंके इक्कीस प्रकृतिक एक उदयस्थान जानना चाहिए। बादर अपर्याप्तकोंके चौबीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान जानो ॥२७१॥" सूक्ष्म अपर्याप्तकोंके विग्रहगतिमें नामकर्मका २१ प्रकृतिक उदयस्थान और शरीर ग्रहण करनेपर २४ प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसी प्रकार बादर अपर्याप्तकोंके भी ये दोनों उदयस्थान होते हैं। अतः पाठ इस प्रकार होना चाहिए-'सूक्ष्म अपर्याप्तकों और बादर अपर्याप्तकोंके २१ प्रकृतिक और २४ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं ॥२७१॥' पृ० ४१७ मूलगाथा ३१ व ३२ में सातों अपर्याप्त जीव समासोंमें प्रत्येकके दो-दो उदयस्थान कहे हैं। गाथा ४३४ २२६ "मिच्छाई देसंता पण चदु दो दोणि भंगा ह!" इसमें 'दो दोण्णि' का अर्थ 'दो, दो और दो' किया गया है किन्तु इसका अर्थ 'दो दो बार' होता है। अत: 'दो तिण्णि' पाठ होना चाहिए। ४५१ ३३४] प्रमत्त गुणस्थानमें ९ योग तो तीनों वेदोंके उदयमें होते हैं। किन्तु पाहारक-द्विक काय४५९ ३५२ । योगमें मात्र पुरुषवेद होता है अत: भंग लाते समय ९ योगसे गुणाकर २४ (४ कषाय x३ वेद ४२ हास्यादि युगल ) से गुणा करना चाहिए। आहारक और आहारक मिश्र इन दो योगोंसे पृथक् गुणाकर ८ (४ कषाय x १ वेद x २ हास्यादि युगल ) से गुणा करना चाहिए । एक साथ ग्यारह योगसे गुणा कर, गुणनफलको पुनः २४ से गुरणा करना ठीक नहीं है। ४८४ ३९६-३९७ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें एक प्रकृतिक सत्त्वस्थान मोहनीय कर्मका क्यों नहीं कहा ? मायाके क्षय होनेपर मात्र बादर लोभका सत्त्व रहता है। ४८६ ३९९ 'छण्णव छत्तिय सत्त य एग दुयं तिय तियट्ठ चहुँ ।' अर्थ-६ ९ ६, ३ ७ १, २ ३ २, ३ ८४ । '२३२' में से दुसरे '२' के लिए गाथामें कौन शब्द है ? गाथाका पाठ इस प्रकार होना चाहिये-'छण्णव छत्तिय सत्त य एग दुयं तिय [दुयं] तिय? चदु।' ४३७ 'पणुवीसाई पंच य बंधा वेउन्विए भणिया ।' वैक्रियिक काययोगमें २५।२६।२८।२९।३० ये पांच बंधस्थान नामकर्मके कहे हैं। किन्तु वैक्रियिक काययोगमें २८ प्रकृतिक बंधस्थान कैसे संभव है ? क्योंकि २८ का बंधस्थान देवगति या नरकगति सहित होता है । वैक्रियिक काययोग देव व नारकियोंके होता है जो देव या नरकगतिका बंध नहीं करते । ५०१ ४३९ आहारक काययोगियोंके नामकर्मका ९१ व ९० का सत्त्वस्थान कैसे सम्भव है ? क्योंकि पाहारक काययोगके प्राहारक द्विकका सत्व अवश्य होगा। ५०३, ४४४ व टीका "अडवीस" के स्थानपर 'णव वीस' होना चाहिए। क्योंकि २८ प्रकृतिक नामकर्म उदय स्थान चारों गतियोंमें छहों पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेसे पूर्व होता है और विभंगज्ञान मन: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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