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________________ ४२२ पञ्चसंग्रह विकलत्रयेषु प्रत्येकम् बन्धः उदयः सरम् असंज्ञिपर्याप्त बन्धः उदयः सत्वम् संज्ञिपर्याप्ते बन्धः उदयः सत्वम् २३ २११२ २३ २५ २१ २६ १२ १० ० 1 Y ry om murw . २६ w w rirr mm w ०. ८ २८ २३ २१६३ २५ २५ ६२ २६ २६ २८ २७ २६ २८ ३० २६ ० ज - M० सयोगायोगयोः बन्धः उदयः सत्त्वम् समुद्धातकेवलिनि बन्धः उदयः सत्त्वम् १० २० ० ० ३१ m ० ० .666 ० ० ur." ०० ० ० ० ० ० इति जीवसमासप्ररूपणा समाप्ता। पर्याप्त संज्ञी जीवोंमें सर्व ही बन्धस्थान जानना चाहिए । उदयस्थान चौबीस, नौ और आठ प्रकृतिक तीनको छोड़कर शेष आठ होते हैं। उसके सत्तास्थान उपरिम दोको छोड़कर अधस्तन ग्यारह होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी दोनों ही केवलियोंके तीस, इकतीस, नौ और आठ प्रकृतिक चार उदयस्थान होते हैं। उन्हीं केवलियोंके सत्तास्थान अस्सी, उन्यासी, अट्ठहत्तर, सतहत्तर दश और नौप्रकृतिक छह होते हैं ॥२७८-२८०।। संज्ञी पर्याप्तकके बन्धस्थान २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ और १ प्रकृतिक आठ होते हैं। उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक आठ होते हैं । सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८ और ७७ प्रकृतिक ग्यारह होते हैं। ___ इस प्रकार जीवसमासोंमें नामकर्मके बन्ध, उदय और सत्तास्थानोंका निरूपण समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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