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________________ ११२ पञ्चसंग्रह अणमिच्छाहारदुगूणा सव्वे उवसमे णेया । आहारजुयलजुत्ता वेदय-खइयम्मि ते होति ॥१७॥ मिच्छाहारदुगुणा साए मिच्छम्मि आहारदुगूणा । अण-मिच्छ-मिस्स जोगा हारदुगूणा हवंति मिस्सम्मि ॥१८॥ उपशमसम्यक्त्वे अनन्तानुबन्धिचतुष्क मिथ्यात्वपञ्चकाऽऽहारद्विकोनाः अन्ये सर्वे षट्चत्वारिंशत्प्रत्ययाः ४६ ज्ञेयाः । वेदकसम्यक्त्वे क्षायिकसम्यक्रवे च त एवाऽऽहारकयुगलयुक्ताः ४८ भवन्ति ॥१७॥ सासादनरुचौ मिथ्यात्वपञ्चकाऽऽहारद्विकोनाः पञ्चाशत् प्रत्ययाः ५० स्युः । मिथ्यात्वे आहारकद्विकोनाः पञ्चपञ्चाशत् ५५ प्रत्ययाः स्युः । मिश्रे अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्वपञ्चकमिश्रत्रिकयोगाऽऽहारकद्वयोनास्त्रिचत्वारिंशत्प्रत्ययाः ४३ स्युः ॥१८॥ ___ सम्यक्त्वमार्गणाको अपेक्षा औपशमिकसम्यक्त्वी जीवोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्वपंचक, और आहारकद्विक इन ग्यारहके विना शेष छयालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं। वेदकसम्यक्त्वी और क्षायिकसम्यक्त्वी जीवोंमें आहारकयुगलसे युक्त उपयुक्त छयालीस अर्थात् अड़तालीस-अड़तालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्वपंचक और आहारकद्विक, इन सातके विना शेष पचास बन्ध-प्रत्यय होते हैं। मिथ्यादृष्टियोंमें आहारकद्विकके विना शेष पचपन प्रत्यय होते हैं। मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्वपंचक, तीनों मिश्रयोग (औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण) तथा आहारकद्विक, इन चौदहके विना शेष तैंतालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥६७-६८।। मिच्छाइचउक्केयारजोगुणा असण्णिए मोत्तु। भासंतोरालदुअं कम्मं सण्णिम्मि सव्वे वि ॥६६॥ . मिथ्यात्वादिचतुष्कं मिथ्यात्वाविरतकपाययोगा इति चतुष्कं तन्मध्ये पञ्चदश योगा वर्तन्ते । तत्र भाषान्तं अनुभयवचनं औदारिकद्विक कार्मणं चेति चतुर्योगान् मुक्त्वा शेषकादश योगाः, असंज्ञित्वान्मनो ना अन्ये ४५ असंज्ञिजीवे प्रत्ययाः स्युः । ते के ? मिथ्यात्वपञ्चकं ५, अविरतयः ११, कषायाः २५, योग: ४ एवं ४५ । संज्ञिजीवे सर्वे सप्तपञ्चाशत् ५७ प्रत्ययाः स्युः ॥६॥ संज्ञिमार्गणाकी अपेक्षा असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व आदि चार मूलप्रत्ययोंमेंसे योग-सम्बन्धी अन्तिम वचनयोग, औदारिकद्विकयोग और कामणकाययोग, इन चारको छोड़कर शेष चार मनोयोग, आदिके तीन वचनयोग, वैक्रियिकद्विक और आहारकद्विक इन ग्यारह योगोंके विना अवशिष्ट बन्ध-प्रत्यय होते हैं । संज्ञी जीवों में सर्व ही बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१६॥ विशेषार्थ-यद्यपि भाष्य-गाथामें 'एयार जोगूणा' ऐसा निर्देश है, अतः ग्यारह ही योग कम करना चाहिए थे । परन्तु यतः असंज्ञी जीवोंके मन नहीं होता, अतः मन-सम्बन्धी अविरतिका न होना भी स्वतः-सिद्ध है । इस प्रकार ग्यारह योग और एक मन-सम्बन्धी अविरतिके घटाने पर शेष पैंतालीस बन्ध-प्रत्यय असंज्ञी जीवोंमें पाये जाते हैं, ऐसा जानना चाहिए। आहारे कम्मूणा इयरे कम्मूण जोयरहिया ते । एवं तु मग्गणामुं उत्तरहेऊ जिणेहिं णिहिट्ठा ॥१०॥ मग्गणासु पञ्चया समत्ता। कैब जुवल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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