________________
शतक
केवलज्ञाने केवलदर्शने च मनो-वचनप्रथमान्ताः सत्यानुभयमनो-वचनयोगाः ४, कार्मणं १ भौदारिकद्विकं २ चेति सप्ताssस्रवाः ७ स्युः । सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः संज्वलना: ४ नव नोकपायाः ६ मनो-वचनयोगाः ८ औदारिकाssहारकद्विकं ३ चेति चतुर्विंशतिः प्रत्ययाः २४ स्युः ॥ ६२ ॥
परिहारविशुद्धौ त एव २४ आहारकद्विकोनाः द्वाविंशतिः २२ । सूक्ष्मसाम्परायसंयमे मनो-वचनयोगाः अष्टौ , औदारिककाययोगः १ । कथम्भूते सूक्ष्मे ? संज्वलनलोभान्ते । संज्वलन लोभोऽन्ते यस्य, स सूक्ष्मलोभसंयुक्तः १ । एवं दश प्रत्ययाः १० ॥६३॥
यथाख्याते कार्मणं १ औदारिकद्विकं २ मनो-वचनयोगाः अष्टौ म चेत्येकादश ११ भवन्ति । असंयमे आहारकद्वयोनाः अन्ये सर्वे पञ्चपञ्चाशत् प्रत्यया ५५ ज्ञेयाः ॥६४॥
अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्वपञ्चकाप्रत्याख्यान चतुष्क- वसवध-वै क्रियिकयुग्माऽऽहारकयुगलौदारिकमित्रकार्मण कैस्तैर्विशति संख्यैर्विहीनाः अन्ये सप्तत्रिंशत्प्रत्ययाः देशसंयमे ३७ भवन्ति ॥ ६५॥
ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें आहारकद्विकके विना शेष पचपन-पचपन बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए । विभंगज्ञानियों में मिश्रत्रिक अर्थात् औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मणकाययोग, तथा आहारकद्विक; इन पाँचको छोड़कर शेष बावन बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिद्विक अर्थात् अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंमें अनन्तानुबिन्धचतुष्क और मिथ्यत्वपंचक; इन नौके विना शेष अड़तालीसअड़तालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । मन:पर्ययज्ञानियों में हास्यादिषट्क, पुरुषवेद, संज्वलनचतुष्क, मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क और औदारिककाययोग; ये बीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । केवलद्विक अर्थात् केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवों में आदि और अन्तके दो-दो मनोयोग और वचनयोग, तथा औदारिकद्विक और कार्मणकाययोग; इस प्रकार सात-सात बन्ध-प्रत्यय होते हैं । संयममार्गणाकी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापनासंयमी जीवोंमें संज्वलनचतुष्क, नौ नोकपाय, मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क, औदारिककाययोग और आहारकद्विक, ये चौबीस चौबीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । परिहारविशुद्धसंयमी जीवोंमें उक्त चौबीसमेंसे आहारकद्विकके सिवाय शेष बाईस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । सूक्ष्मसाम्परायसंयमियोंमें मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क, औदारिककाययोग और सूक्ष्मलोभ, ये दश बन्ध-प्रत्यय होते हैं । यथाख्यातसंयमियोंमें मनोयोगचतुष्क, वचनयोगचतुष्क, औदारिकद्विक और कार्मणकाययोग, ये ग्यारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं । असंयमी जीवोंमें आहारकद्विकके विना शेष पचपन बन्धप्रत्यय जानना चाहिए । देशसंयमी जीवोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मिथ्यात्वपंचक, त्रसवधू, वैक्रियिकयुगल, आहारकयुगल, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग, इन बीसके विना शेष सैंतीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥ ६०-६५ ॥
तेज-तिय चक्खुजुले सच्चे हेऊ हवंति । भव् य ।
किण्हाइतिया भव्वे आहारदुगूणया या ||६६॥
Jain Education International
१११
तेजखिके पीत-पद्म-शुक्ललेश्यासु, चक्षुर्युगले चक्षुर्दर्शने अचक्षुर्दर्शने भव्यजीवे च सर्वे सप्तपञ्चाशत्क - गां हेतवः प्रत्ययाः ५७ भवन्ति । कृष्णादित्रि के अभव्ये च आहारकद्विकोनाः अन्ये पञ्चपञ्चाशत् ५५ प्रत्ययाः ज्ञेयाः ॥ ६६॥
लेश्यामार्गणाकी अपेक्षा तेज-त्रिक अर्थात् तेज, पद्म और शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें, दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा चक्षुयुगल अर्थात् चक्षुदर्शनी और अचतुदर्शनी जीवोंमें तथा भव्यमार्गणाकी अपेक्षा भव्योंमें सभी बन्ध-प्रत्यय होते हैं । कृष्णादि तीन लेश्यावालों में, तथा अभव्यों में आहारकद्विकके विना पचपन बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए ||६६ ॥ !
दि भवंति ।
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org