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पञ्चसंग्रह
स्त्रीवेदे नपुंसकवेदे च आहारकद्विकाऽन्यतरवेदद्वयरहिताः प्रत्ययाः ५३ भवन्ति । क्रोधादिकषायेषु क्रोधादेरितरद्वादशविहीनाः, यदा क्रोधो भवति, तदाऽन्यत् मानादित्रयं न भवति, इति हेतोरनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानादिभेदेन द्वादशरहिता: ४५ ॥८॥
__कायमार्गणाकी अपेक्षा त्रसकायिक जीवों में और पंचेन्द्रियों में सर्व ही बन्ध-प्रत्यय होते हैं। स्थावरकायिक जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान अड़तीस बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए। योगमार्गणाकी अपेक्षा आहारकद्विकके विना बाकीके तेरह योगोंमें निज-निज योगको छोड़कर शेष चौदह . योगोंसे रहित तेतालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं । आहारकद्विकमें चारों संज्वलन, तथा नपुंसक और स्त्रीवेदको छोड़कर शेष सात नोकषाय और स्वकीय योग इस प्रकार बारह बन्ध-प्रत्यय होते हैं।
णाकी अपेक्षा पुरुषवेदी जीवों में सभी बन्ध-प्रत्यय जानना चाहिए। स्त्रीवेदी और नपंसकवेदी जीवोंमें आहारकद्विकको छोड़कर शेष सर्व प्रत्यय होते हैं । कषायमार्गणाको अपेक्षा विवक्षित क्रोधादि कषायोंमें अपने चारके सिवाय अन्य बारह कषायोंके घट जानेसे शेष पैंतालीस-पैतालीस बन्ध-प्रत्यय होते हैं ।।८७-८६॥
विशेषार्थ-वेदमार्गणामें इतना विशेष ज्ञातव्य है कि विवक्षित वेदवाले जीवके बन्धप्रत्यय कहते समय उसके अतिरिक्त अन्य दो वेदोंको भी कम करना चाहिए; क्योंकि एक जीवके एक समयमें सभी वेदोंका उदय संभव नहीं है। अतएव पुरुषवेदीके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके विना पचपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं। तधा स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदीके स्व-व्यतिरिक्त शेप दो वेद और आहारकद्विकके विना शेष तिरेपन-तिरेपन बन्ध-प्रत्यय होते हैं।
मइ-सुअअण्णाणेसुआहारदुगूणया मुणेयव्वा । मिस्सतियाहारदुअं वजित्ता सेसया दु वेभंगे ॥१०॥ मइ-सुअ-ओहिदुगेसुं अणचदु-मिच्छत्तपंचहि विहीणा । हस्साइ छक्क पुरिसो संजलण मण-वचि चउर उरालं ॥१॥ मणपज्जे केवलदुवे मण-वचि पढमंत कम्म उरालदुगं । संजलण णोकसाया मण-वचि ओराल आहारदुगं॥१२॥ सामाइय-छेएसुआहारदुगूणया दु परिहारे। मण-वचि अहोरालं सुहुमे संजलण लोहंते ॥६३॥ कम्मोरालदुगाई मण-वचि चउरा य होंति जहखाए । असंजमम्मि सव्वे आहारदुगूणया णेया ॥१४॥ अण मिच्छ विदिय तसवह वेउव्वाहारजुयलाई
ओरालमिस्सकम्मा तेहिं विहीणा दु होति देसम्मि ॥६॥ मति-श्रताऽज्ञानद्वये आहारकरिकोनाः अन्ये पञ्चपञ्चाशत् प्रत्ययाः ५५ ज्ञातव्याः। विभङ्गज्ञाने औदारिक-वक्रियिकमित्र-कार्मणनिति मिश्रत्रिकं आहारकद्विकं च वर्जयित्वा शेषाः ५२ प्रत्ययाः स्युः ॥१०॥
मति-श्रतावधिज्ञानेषु अवधिदर्शने च अनन्तानुबन्धिचतुष्क-मिथ्यात्वपञ्चकैविहीना: अन्ये अष्टचत्वारिंशत् ४८ प्रत्ययाः स्युः । मनःपर्ययज्ञाने हास्यादिषटकं ६ पुंवेदः १ संज्वलनचतुष्कं ४ मनोयोगचतुष्कं ४ वचनयोगचतुष्कं ४ औदारिकं १ चेति विंशतिः २० ॥११॥
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