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________________ २०४ पञ्चसंग्रह ४ सचतु-[कं ४ उद्योतं १ अप्रशस्त-] विहायोमतिः १ स्थिर-शुभ-यशोयुगलानां त्रयाणां मध्ये एकतरं ३ अनादेयः १ दुर्भगः १ दुःस्वरं । निर्माणं १ द्वि-[त्रि-चतुरिन्द्रियजातीनां म-] ध्ये एकतरं १ चैवं त्रिंशत्प्रकृतीनां स्थानं त्रिंशत्कं मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती तिर्यजीवो मनुष्यो वा [ तिर्यग्गति गन्ता बध्नाति । ] ॥२७१-२७३॥ ____ इसी प्रकार तीसप्रकृतिक तृतीय बन्धस्थान है। उसकी प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यग्द्विक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर-अंगोपांग, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ और यशस्कीर्ति; इन तीन युगलोंमेंसे कोई एक-एक; अनादेय, दुर्भग, दुःस्वर, निर्माण और विकलेन्द्रियजातियोंमेंसे कोई एक; इन प्रकृतियोंको तिर्यग्गतिमें जानेवाला मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तियच ही बाँधता है ॥२७१-२७३।। एत्थ वियलिंदियाणं हुंडपठाणमेयमेव । तहेव एदेसि बंधोदयाण दुरू रमेव । तिण्णि वियलिदियजाईओ थिर-सुह-जसजुयलाणि ३१२।२।२। अण्णोण्णगुणिया भंगा २४ ।। [ अत्र विकलेन्द्रियाणां हुंडसंस्थानमेवैकम् । तथैतेषां बन्धोदययोर्दुःस्वरमेवेति । वि.] कलत्रयजातयः स्थिर-शुभ-यशोयुगलानि वीणि ३।२।२ अन्योन्यगुणितास्तृतीय-त्रिंशत्कस्य भ-[ङ्गाः २४ भवन्ति । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि विकलेन्द्रिय जीवोंके हुंडकसंस्थान ही होता है। तथा इनके दुःस्वरप्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है। इनकी तीन विकलेन्द्रिय-जातियाँ तथा स्थिर, शुभ और यशस्कीर्तियुगल; इनके परस्पर गुणा करनेसे (३४२४२४२=२४) चौबीस भंग होते है। जह तिण्हं तीसाणं तह चेव य तिण्णि ऊणतीसं तु । णवरि विसेसो जाणे उज्जोवं णत्थि सव्वत्थ ॥२७४॥ _ एयासु पुवुत्तभंगा ४६०८।२४ । यथा येन प्रकारेण [ प्रथमं द्वितीयं तृतीयं विंश-1 स्कं ३०॥३०॥३० कथितं तथैव प्रकारेणकोनत्रिंशत्कस्थानानि त्रीणि २६।२६।२६ भवन्ति । किन्तु पुनः नव [रि वच्यमाणमिमं विशेयं ] त्वं जानीहि भो भव्य ? को विशेषः ? सर्वत्र तिर्यक्षुद्योतो नास्ति । केचिजीवा उद्योतं बध्नन्ति, केचिन्न बध्नन्तीत्यर्थः । .........-धोतो यत्रकोनत्रिंशत्कं तद्रोद्योतो नास्ति । एतासु पूर्वोक्ता भङ्गाः २६॥२४॥२६ एतेषां जयाणां भङ्गाः ४६०८।२४ ॥२७४॥ जिस प्रकारसे तीन प्रकारके तीसप्रकृतिक बन्धस्थानोंका निरूपण किया है, उसी प्रकारसे तीन प्रकारके उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान भी होते हैं। केवल विशेषता यह ज्ञातव्य है कि उन सभीमें उद्योतप्रकृति नहीं होती है ॥२७४।। __इन तीनों ही प्रकारके उनतीस प्रकृतिक बन्धस्थानोंके भंग पूर्वोक्त ४६०८ और २४ ही होते हैं। 1. सं०पञ्चसं० ४, 'अत्र विकलेन्द्रियाणां' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२२)। 2. ४; १५१ । १. पद खं० जीव० चू० स्थान० सू० ७०-७५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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